मुझे तुम से कोई मोहब्बत न उल्फ़त तअ'ल्लुक़ भी अब है बरा-ए-तअ'ल्लुक़ मगर तुम से जब भी मिला हूँ मुझे मेरा साया जिसे मैं वहीं छोड़ आया जहाँ वो ख़यालों की वादी में ख़्वाहिश की तितली के पीछे उड़ा जा रहा था तुम्हारी घनी ज़ुल्फ़ की बदलियों में ज़मीं से बहुत दूर लेकिन मेरे पैर में डोर ऐसी बंधी थी कि जिस ने मुझे बदलियों से उठा कर ज़मीं पर बिठा कर मेरे चारों जानिब कई दाएरे बुन दिए हैं है दुश्वार जिन से निकलना मगर तुम से जब भी मिला हूँ मुझे मेरा साया बहुत याद आया