सर-ए-रहगुज़र ख़्वाब सा इक मकाँ कुछ दिनों से मिरा रास्ता रोकता है किसी ने यहाँ ऐसे लहजे की झंकार ला कर सजा दी है जिस तरह तुम बोलती हो शिकस्ता किवाड़ों से छनते हुए क़ामत-ओ-ज़ुल्फ़-ओ-रुख़सार सब कुछ तुम्हारी तरह है मगर सोचता हूँ किसी दिन हवाएँ ये पर्दा उठा दें तो मुझ से ख़ुद-आज़ारियों के अज़ाबों की लज़्ज़त भी छिन जाएगी