मोहब्बत और हवस घर के बदरिया आई काली ख़ुश ख़ुश था धरती का वाली सोच रहा था अब बरसेगी और बरस कर पहुँचाएगी हिज्र आँखों को हरियाली मेरी बगिया में बरसी थी काली गहरी बोझल बदली कोंपल कोंपल पत्ता पत्ता फूट रहा था ख़ूब ही था सारी धरती जाग रही थी मैं ख़ुश था हो बालक जैसे छोड़ के बारिश के रेले में नन्ही सी काग़ज़ की कश्ती लेकिन देखा इक डाली पर मुर्दा ताइर एक पड़ा है उड़ता था आकाश में पहले उस को बिजली के कौंदे ने या फिर बारिश की बूंदों ने कोसों नीचे फेंक दिया था