वो चका-चौंद वो शहर के जल्वे वो तमाशे वो कर्तब उजालों के हो रहे महव हम बस-कि साए थे हर तरफ़ शो'बदे बे-कराँ से थे मुब्तला जिन में हम जिस्म-ओ-जाँ से थे न रहा याद आए कहाँ से थे नज़र इक देन थी ख़ुद नज़ारों की ज़ात अपनी इबारत उन्हीं से थी रेहन-ए-दरिया थी गिर्दाब की हस्ती उन्स के राबतों के अमीं थे हम इक फ़ज़ा थी जहाँ हर कहीं थे हम राबतों के सिवा कुछ नहीं थे हम खेल था इक चराग़-ए-तमन्ना का जिस की लौ से थी सब रौशनी बरपा वक़्त का तेल नज़रों से ओझल था ये गुज़िश्ता बहारों के गुल-बूटे चमन-ए-आरज़ू के जिगर-गोशे हमें घेरे खड़े रास्ते रोके लिए आँखों में रंज-ओ-मेहन अपने किए जाएँगे कब तक जतन अपने हमें जाने भी दें अब वतन अपने