ऐ मिरे माज़ी की बिछड़ी हुई राहो ख़याल-ए-यार से बढ़ कर हसीन शाह-राहो सदा न दो मुझ को कि सर-ज़मीन-ए-वतन पर किसी भी आँगन के किसी दराज़ बदन दर के ख़ूब-रू से माथे पर मेरे ख़याल में दिलकश हसीन नाम की तहरीर कातिब-ए-वक़्त ने नहीं लिखी कि मैं हवा-ए-दहर हूँ भटकना नगर नगर अजनबी दयारों में मेरा मुक़द्दर है मुसाफ़िरों के ठिकाने कहीं नहीं होते कि दस्तरस में हों जिन के सिर्फ़ ग़नीम-ए-दौराँ रफ़ीक़ उन के ज़माने नहीं होते