वो शहर जिस की कुँवारियों के गुलाब पिंडे असील ख़्वाजा-सराओं के बे-सिफ़ात जिस्मों से मुंसलिक हों वो शहर जिस में बदन का सोना रफ़ाक़तों की बजाए सूरज की हिद्दतों से पिघल रहा है वो शहर जिस में सदाक़तों को शहीद करने क़दम क़दम पर सितम सलीबें गड़ी हुई हूँ जहाँ जहालत ज़कावतों से ख़िराज माँगे तो ऐसे शहर-ए-ग़नीम-ए-जाँ को तबाह होने से कोई क्यूँकर बचा सकेगा