ये तुम न कहना किसी से तुम को कभी मोहब्बत नहीं रही है तुम्हारे लब पर हिकायत-ए-मेहर-ओ-उल्फ़त नहीं रही है तुम्हारी आँखों ने एक शब भी न कोई क़ुर्बत का ख़्वाब देखा न ख़ून में इल्तिहाब पाया न रूह में इज़्तिराब देखा ये तुम न कहना तुम्हारे एहसास की ज़मीं पर कोई न गुज़रा बदन-दरीदा ख़िज़ाँ-रसीदा-ओ-पा-तपीदा सलोनी रंगत की चाहतों ने कभी न होश-ओ-हवास लूटे हथेलियों में न चाँद उतरा न उँगलियों से शरार फूटे जो तुम कहो तो बस इतना कहना तुम्हारी आँखों के आँगनों में नई घटाएँ उतर रही हैं इसी लिए तो पुराने मौसम का कोई मंज़र बचा नहीं है गुज़िश्ता साअ'त का कोई पैकर रहा नहीं है