सुनो कि शायद ये नूर-ए-सैक़ल है उस सहीफ़े का हर्फ़-ए-अव्वल जो हर कस-ओ-नाकस-ए-ज़मीं पर दिल-ए-गदायान-ए-अजमईं पर उतर रहा है फ़लक से अब के सुनो कि इस हर्फ़-ए-लम-यज़ल के हमीं तुम्हीं बंदगान-ए-बे-बस अलीम भी हैं ख़बीर भी हैं सुनो कि हम बे-ज़बान-ओ-बेकस बशीर भी हैं नज़ीर भी हैं हर इक ऊलुल-अम्र को सदा दो कि अपनी फ़र्द-ए-अमल सँभाले उठेगा जब जिस्म-ए-सरफ़रोशाँ पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले कोई न होगा कि जो बचा ले जज़ा सज़ा सब यहीं पे होगी यहीं अज़ाब-ओ-सवाब होगा यहीं पे रोज़-ए-हिसाब होगा