क़ल्ब-ए-ज़मीं की गहराइयों में नश्व-ओ-नुमा की अंगड़ाइयों में सोया हुआ था आहंग-ए-हस्ती मिट्टी की तह में मानूस पस्ती बाराँ के क़तरे रिस कर बरस कर बोले लहक जा रू-ए-ज़मीं पर सूरज की गर्मी छन-छन के आई बोली उठ जा ले रौशनाई ठंडी हवाएँ नज़दीक जा कर कहने लगीं ये उस को जगा कर उठ जा रे नन्हे उठ लहलहा जा उठ अँखड़ियों में बस जा समा जा ज़ौक़-ए-नुमू ने रूप निकाला बल खा के उट्ठा नन्हा सा पौदा मल मल के आँखें हैरत से देखा आकाश धरती कोहसार दरिया हर सम्त देखीं दिलकश अदाएँ दुनिया की हलचल रंगीं फ़ज़ाएँ लहरा गया वो फ़र्त-ए-ख़ुशी से अब उस ने जाने गुर ज़िंदगी के