वो इक मुफ़क्किर-ए-अज़ीम शाइ'र था वो इक़बाल शाइ'रों का वो ज़िंदगानी का राज़-दाँ वो कामरानी का नग़्मा-ख़्वाँ मक़्बूल था हिंद-ओ-पाक में वो यकसाँ तराना-ए-हिन्द का वो ख़ालिक़ वो फ़लसफ़ी था वो रहनुमा था दिया फ़ल्सफ़ा जिस ने ख़ुदी-ओ-बे-ख़ुदी का तमाम दुनिया के नज़्म-हा-ए-सियासत तमाम दुनिया के नुक़्ता-हा-ए-नज़र थे उस की चश्म-ए-बीना में रौशन था मगर वो आशिक़-ए-एशिया हरीफ़ था अहल-ए-मग़रिब का वो ख़िताब जिस को दिया था क़ौम ने उस की वही था शाइर-ए-मशरिक़ था वो मुबल्लिग़ इस्लाम का बे-शक कि इस्लाम है अम्न-ओ-राहत का मज़हब वो था इक मर्द-ए-कामिल इंसाँ मुकम्मल गरचे था बरहमन-ज़ादा कश्मीर का नज़र में उस की था देवता सा वतन की मिट्टी का हर एक ज़र्रा ख़िरद थी उस की निगाह में हेच-ओ-पस्त जुनून-ए-इश्क़ का था वो दिल से क़ाइल वो था इक पैग़म्बर इल्म-ओ-अमल का थी न महदूद शायरी उस की न था महदूद दायरा उस के पैग़ाम का थे मुख़ातब उस के सारी दुनिया के आम-ओ-ख़ास किसानों मज़दूरों का था वो हामी कह गया वो अपने शे'र में जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर न हो रोज़ी उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो