यही एक लम्हा मगर ज़िंदगी है जो सदियों के बेचैन बे-आस ख़्वाबों के बदले अचानक मिला है सो उन रेज़ा रेज़ा उमीदों के मदफ़न पे मैं आज मातम कुनाँ भी नहीं हूँ कि अब तेरे मिलने बिछड़ने की कोई तमन्ना न जीने की ख़्वाहिश न मरने का ग़म मैं अँधेरों के हर ख़ौफ़ से मावरा हूँ ये लम्हा उजालों का लम्हा मिरे गिर्द हाला किए है दूर तक रौशनी के सिवा कुछ नहीं क्या यही ज्ञान है क्या मैं सिद्धार्थ हूँ