पेड़ की शाख़ों पर आवेज़ाँ कुछ लम्हे प्यार के छोटे छोटे गुलाबी रुई के गालों की तरह कई बार अपने लब-ओ-रुख़्सार से सटा कर उन के ख़रगोशी लम्स को महसूस करना चाहा है और चाहा है काले धबीले आकाश पर छिटकते चमकीले दाएरों को आँखों में भरना जब कभी बरसती बरसात में दर्द का पैमाना छलका है तब आकाश के धब्बे एक दूसरे में मुदग़म हो गए हैं सोफ़े पर अध-लेटी कॉफ़ी के प्याले में मैं इन सब को साफ़ साफ़ डूबते उभरते देख रही हूँ