न अब मैं प्यार कर सकता हूँ और न डाँट सकता हूँ जो बाक़ी रह गए हैं दिन उन्हें बस काट सकता हूँ जो मिल जाए उसी पर इक्तिफ़ा करना ही पड़ता है कोई शय अपनी मर्ज़ी से न अब में छाँट सकता हूँ हुआ हूँ जब से पेंशन-याफ़ता ये हाल है यारो न कोई क़र्ज़ देता है न पेंशन बाँट सकता हूँ यही क्या कम है ख़ुद-मुख़्तार हूँ मैं जब भी जी चाहे तमन्नाओं के पर उड़ने से पहले काट सकता हूँ मैं अपने वक़्त के हाथों में हूँ जैसे छटी उँगली न इस्ति'माल कर सकता हूँ और न काट सकता हूँ ग़मों की ख़ैर टेढ़ी ही नहीं गाढ़ी भी होती है न पी जाती है ये और न उसे मैं चाट सकता हूँ उड़ा कर देख ले कोई पतंगें अपनी शेख़ी की बुलंदी पर अगर हूँ भी तो कन्ने काट सकता हूँ यही तौफ़ीक़ क्या कम है कि रौनक़ को हँसा कर मैं दुखों का बोझ कम करने ग़मों को बाँट सकता हूँ ख़लीज-ए-बुग़्ज़-ओ-नफ़रत गर दिलों में हो गई पैदा उसे मैं 'ख़्वाह-मख़ाह' हँसते-हँसाते पाट सकता हूँ