ये कच्ची कलियाँ गुलाब जैसी ये किस ने इन को मसल दिया है ये किस ने इन को कुचल दिया है कि शाह-राहों में हैं फ़सुर्दा कहाँ हैं माली कहाँ हैं ग़ुंचे कहाँ गए सब मुहाफ़िज़-ए-गुल लहू का किस ने ख़िराज माँगा कि सहन-ए-गुलशन लहू लहू है कबीदा माली फ़सुर्दा ग़ुंचे हदों से अपनी गुज़र गए हैं इधर उधर सब बिखर गए हैं हिसार-ए-ज़ुल्मत में खो गए हैं है कौन उन को अज़ान दे कर सफ़ों में ला कर खड़ा करेगा हवस के बंदों को दर्स देगा दिया जला के उख़ुव्वतों का ये ज़ुल्म हम सब सहेंगे कब तक ये आशियाने जलेंगे कब तक उदास गुलशन रहेगा कब तक ये ख़ून-ए-नाहक़ बहेगा कब तक उदास नस्लों के वारिसो तुम लहू का कब तक ख़िराज दोगे अना की मूरत को तोड़ डालो हवस के बंदो सितम-ज़रीफ़ो उख़ुव्वतों का सलाम ले कर मोहब्बतों का पयाम ले कर बढ़ो कि मंज़िल पुकारती है बढ़ो कि मंज़िल पुकारती है