हसीन ख़्वाबों की आरज़ू थी कि चाँद तारों की अंजुमन में बहार-ए-रंगीं की जुस्तुजू में फ़ज़ा-ए-दिलकश की ख़ामुशी में चराग़-ए-मिल्लत की लौ बढ़ाए नक़ीब-ए-सुब्ह-ए-जमील बन कर मिले थे हम अहल-ए-कारवाँ से जो सू-ए-मंज़िल रवाँ-दवाँ थे अजब इरादे हज़ार वा'दे उन्हीं इरादों की रौशनी में यक़ीन-ए-मोहकम के बन के पैकर लहू के दरिया से पार हो कर मसर्रतों की बरात ले कर नई उमंगों को साथ ले कर उम्मीद-ए-फ़र्दा से लौ लगाए चले थे लाने नया सवेरा मगर जो ख़ुर्शीद-ए-सुब्ह निकला तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल टूटे न चाँद तारों की अंजुमन थी न रंग-ओ-निकहत की जुस्तुजू थी