मैं क़ैद-ए-हस्ती में दुख का बार-ए-गराँ लिए तड़प रहा हूँ सिसक रहा हूँ ये गुमरही है कि रौशनी ये आगही है कि तीरगी मैं रस्ते से बहक रहा हूँ भटक रहा हूँ ये किन वादियों में जा रहा हूँ नहीं नहीं उफ़ुक़ पे चमक रहा हूँ दमक रहा हूँ इसी को समझो बहार-ए-हस्ती शबाब-ए-हस्ती यहीं से टूटे शरार-ए-हस्ती मैं दिल के अथाह सागर में हबाब और मौज की मस्तियों में भँवर को ढूँड रहा हूँ भँवर ही ज़िंदगी है भँवर में अज़ल के और अबद के चराग़ जलते हैं