दूर तक हर तरफ़ रास्ते रास्ते रास्ते सब के सब कितने सुनसान हैं कितने वीरान हैं चाँद सूरज घटा फूल बाद-ए-सबा कोई भटकी सदा नग़मगी और नवा या कोई नक़्श-ए-पा दूर तक कुछ नहीं दूर तक दूर तक ता-ब-हद्द-ए-नज़र कोई साया नहीं ऐसा लगता है सदियों से इस शहर में इक मुसाफ़िर भी भूले से आया नहीं