सबा ये रूह-ए-'ज़फ़र' का पयाम लाई है कि सल्तनत से फ़ुज़ूँ इश्क़ की गदाई है ग़ुरूर-ए-फ़त्ह को भी लड़खड़ा दिया जिस ने तिरे ख़ुलूस ने ऐसी शिकस्त खाई है किसे ख़बर है कि अर्ज़-ए-वतन पे क्या गुज़री कि तुझ को गोशा-ए-ग़ुर्बत में मौत आई है मिरे चमन में उरूस-ए-बहार-ए-आज़ादी तिरे मज़ार पे आँसू बहा के आई है