इक मुकम्मल ज़िंदगी है शाइ'र-ए-शीरीं-बयाँ महरम-ए-राज़-ए-फ़ना है और बक़ा का तर्जुमाँ उस की हस्ती की है क़ीमत इक निगाह-ए-इल्तिफ़ात हेच ख़ुद्दारी के आगे हैं ज़मीन-ओ-आसमाँ वो कहीं मजबूर-ए-मुतलक़ है कहीं मुख़्तार-ए-कुल हुस्न का बे-दाम बंदा वर्ना है शाह-ए-जहाँ ख़म जबीं होती है उस की नक़्श-ए-पा-ए-दोस्त पर और झुक जाते हैं उस के पाँव पर दोनों जहाँ उस से पोशीदा नहीं हैं राज़हा-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ तर्जुमाँ है अहल-ए-उल्फ़त का वो सिर्र-ए-दिल-बराँ फूल बरसाता है अपने दोस्तों की बज़्म में और गिराता है सफ़-ए-अग़्यार पर ये बिजलियाँ उस के नाज़ुक क़ल्ब में मिलता है मज़लूमों का दर्द बे-कसों का है वो हामी बे-ज़बानों की ज़बाँ फ़ितरतन आज़ाद बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर बेबाक है ज़िंदगी देती हैं उस को ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ दिल के तूफ़ाँ में क़लम उस का है कश्ती नूह की और है उस का तसव्वुर एक बहर-ए-बे-कराँ क़ल्ब उस का मुल्क के हालात का आईना-दार क़ौम के जज़्बात की तश्हीर है उस का बयाँ दीन है उस का मोहब्बत उस की दुनिया शायरी है तशद्दुद का मुख़ालिफ़ हामी-ए-अम्न-ओ-अमाँ ऐ 'शिफ़ा' उन को मगर शाइ'र न कह देना कहीं बज़्म में ला कर जो पढ़ते हैं कलाम-ए-दीगराँ