बिठा के काँधे पे लाई थी रात उसे शफ़क़ ने हँस के किया था इस्तिक़बाल हवा ने रागनी छेड़ी फ़ज़ा में गीत घुले सजा के पत्तों की थाली में ओस के जुगनू उतारी थी पेड़ों ने आरती उस की मगर बुलंदी पे आ कर बदल गए तेवर शिकन ग़ुरूर की पेशानी पर झलकने लगी निगाह-ए-क़हर-ओ-हिक़ारत से देखती सब को मिज़ाज गर्म हुआ और गर्म और भी गर्म जुनून सर में फ़क़त मैं का ही समाया रहा और इस घमंड में वो भूल बैठा है कि उस के पीछे ही है शाम का साया ज़मीं बुलंदी की होती नहीं हमवार कभी यहाँ पे शख़्स नहीं शख़्सियत ठहरती है