सोज़-ए-ग़म मूजिब-ए-हयात भी है एक शय ज़हर भी नबात भी है आगही में भला ये बात कहाँ इश्क़ पुख़्ता भी बा-सबात भी है दिल जो सिमटे तो क़तरा-ए-ख़ूँ है और फैले तो काएनात भी है आप का हर सितम बजा लेकिन कोई शय हुस्न-ए-इल्तिफ़ात भी है चेहरा रौशन हुआ तो क्या हासिल दिल हो रौशन तो कोई बात भी है ज़िंदगी इक बला सही लेकिन इस बला से कहीं नजात भी है गुल-ओ-बुलबुल की दास्ताँ ही नहीं शायरी शरह-ए-वारदात भी है