कान के पास से निकली गोली ज़ह्न के अन्दर ठहर गई है कान के पर्दे पर इक चूँ का लम्बा पर्दा पड़ा हुआ है बच्चों के हँसने की खन-खन मौसम के पाज़ेब की छन-छन चीख़ हो कोई या फिर सिसकी इस पर्दे पर ही है ठिठकी या'नी कोई लफ़्ज़ कोई आवाज़ मेरे अंदर आ कर अब ढूँढ नहीं सकती अपनी लय मुझ में कहीं नहीं अब वो शय बम का धुआँ तो बम फटने के कुछ ही देर में हवा हवा था लेकिन उस की चमक आँख पर ठहरी हुई है बीनाई पे जैसे कोई वरक़ चढ़ा है चाँदी का सुब्ह सुब्ह कोई फूल खिले या देर रात एक फ़िल्म चले या तुम आ जाओ शाम ढले कुछ भी देख नहीं सकता मैं मुझ को देखो और बताओ जीते हुए लश्कर के सिपाही ऐसे कैसे हो जाते हैं?