तुम मुझ पर वारिद हुए इक सितमगर की तरह मई की वो शाम थी मुझे आज भी याद है सफ़ेद रंग की शर्ट पहने हाथ में अख़बार रोल किए तुम पिंडाल की कुर्सी पर बिराजमान थे पहली नज़र में तुम आम से थे जैसे तुम आशिक़ हो और मैं महबूब मेरी नज़र का लम्स तुम्हें ख़ासा ख़ास कर गया देखो कहानी ने पल्टा खाया तुम मुहिब बन गए और मैं दीवानी कहलाई मेरे आते ही तुम सिमट गए तब से आज तक वैसे ही मेरी रूह में एक कोंपल की तरह सिमटे बैठे हो मैं मुंतज़िर हूँ कब एहसास का नाज़ुक परिंदा अंगड़ाई ले तुम अपनी बाँहें फैलाए इसी पिंडाल की इसी कुर्सी पर गहरी ख़ामोशी से शोर करते हुए मेरी तरफ़ बढ़ो कि देखने वालों को पाकीज़ा मोहब्बत रक़्स करती दिखाई दे जिस में न नुमाइश हो न हवस बस इक सुरूर हो और मैं मैं ज़मीन के इसी बे-बस बे-हिस टुकड़े पर आँखें मूँदे तुम्हें देखती रहूँ पछतावे का जाल आज तक मुझे लपेट में जकड़े है मैं किसी असीर-ज़ादी की तरह अपनी क़ैद को तक़दीर का लिखा जान कर ख़ुश हूँ मैं इज़हार-ओ-इक़रार से बरी अपनी ख़्वाहिश पर हया की चादर डाले मोहब्बत का तौक़ गले में लटकाए ख़मोशी को लबों पर सजाए ना-उम्मीदी को शिकस्त देते हुए गूँगी बहरी अंधी मोहब्बत पर इक्तिफ़ा किए हुए हूँ कि असीर ख़्वाहिश-ओ-फ़रमाइश का हक़ नहीं रखते