दिसम्बर के दालान में इस चमकती हुई आफ़्ताबी तमाज़त को रूह में उतारे किरन-दर-किरन तुम किसे देखती हो ख़ुनुक सी हवाओं की इन सरसराती हुई उँगलियों में जो इक लम्स महसूस करने लगी हो वो क्या है कोई वाहिमा है? हक़ीक़त है कोई? कि इक ख़्वाब है जो सर-ए-राह आ कर मिला है शब ओ रोज़ मसरूफ़ियत में घिरी हो कोई काम भी हो उसे एक लम्हा नहीं भूलती हो! तुम्हें क्या हुआ है सड़क पर रवाँ अपनी गाड़ी में बैठी यहाँ आती जाती हुई गाड़ियों में किसे देखती हो कभी सामना हो तो आँखों में उस की किसे ढूँढती हो?