हुस्न की मस्लहतों का है तक़ाज़ा दिल से कि निकल जाए ग़म-ए-इश्क़ का सौदा दिल से हो मगर जिस की रग-ओ-पै में मोहब्बत सारी जिस के एहसास पे हो नश्शा-ए-उल्फ़त तारी किस तरह दर्द-ए-मोहब्बत से किनारा कर ले जिस्म और रूह की फ़ुर्क़त को गवारा कर ले आह लेकिन ये कसौटी है वफ़ादारी की आज़माइश है यही इश्क़-ओ-हवस-कारी की देख ऐ दोस्त मिरे जज़्बा-ए-उल्फ़त को देख मेरी बे-लौस वफ़ा पाक मोहब्बत को देख तुझ से भी तेरे लिए क़त्अ नज़र करता हूँ तर्क उल्फ़त को न करना था मगर करता हूँ दीदा-ए-शौक़ न होगा तिरी जानिब निगराँ अब न आएगी लबों तक मिरे फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ चश्म-ए-तर में अब न अश्कों की नमी आएगी दिल की बेताबी-ए-वहशत में कमी आएगी क्या मगर इश्क़ की फ़ितरत भी बदल जाएगी आह क्या याद तिरी दिल से निकल जाएगी