रास्ते के पेच-ओ-ख़म दुश्मन सही फ़ासले हैं मुनहसिर रफ़्तार पर कान मत धरना दिल-ए-आज़ुर्दा की सिस्कार पर क्या हुआ चुल्लू जो छलनी हैं अभी होंट क्यों हों तिश्नगी के इश्तिहार क्या हुआ सोचे हुए मंज़र जो हाथ आए नहीं आँख सा दरिया बने क्यों रेग-ज़ार नाज़ हो तहसील का या ना-रसाई का मलाल हर तग-ओ-दौ है क़वी का इश्तिआ'ल सोच सकता है खुले दिल से तो बस इतना ही सोच शेवा-ए-हिरमान-ओ-यास अच्छा नहीं ज़िंदगी का यूँ लिबास अच्छा नहीं टूट कर सालिम बने रहना अगरचे है फ़रेब मो'तरिज़ होता नहीं कोई मगर इल्हाक़ पर बाज़ तख़लीक़ी अमल के मा-सिवा कौन सा इल्ज़ाम आता है किसी तिरयाक़ पर