तुम्हारी आँखें तुम्हारी काली चमकती आँखें ज़माने के सागर में दो आबनूसी कश्तियाँ जिन की तह में तारे जड़े हुए हैं पलकों के मस्तूल थरथराते हैं हर घड़ी हर दम हिलती डोलती बहती चली जा रही हैं मत रोको इन को इन्हें लम्बे दूर-दराज़ सफ़र करने दो दुख की तिलमिलाती लहरों आँसूओं के भँवर में फँसने दो इन को और इन्हें फिर नित-नई अनजानी आशाओं के सुनहरे साहिलों से टकराने दो ऐसे वैसों के पास इन्हें ले जाओ जहाँ ख़ुशियों के हीरे पत्थर के साथ मिले-जुले चटियल मैदानों में बिखरे पड़े हुए हैं और जहाँ ऊँची नोकीली सख़्त चटानों के सीने चीर कर नाज़ुक नायाब महकते फूल निकल आए हैं गुज़रने दो इन मटियाले भूरे सायों के नीचे से उन को जो दिल को ठहरा देते हैं और उन आसमानी नीली रौशनियों की हल्की मद्धम ज़ौ पड़ने दो इन पर जिन से मन के सब अँधियारे धुल जाते हैं आज़ाद रखो अपनी इन अच्छी आँखों को आज़ाद बरखा में बादल सहरा में आहू बन में जैसे मोर पपीहे हों फिर ये तुम्हारी काली आँखें आब-नूस की दो महकती बहकती कश्तियाँ इन्द्र-धनुष के सातों रंगों से भर जाएँगी और हम तुम से पूछेंगे बताओ ये दो आँखें तुम्हारी हमें क्यों इतनी अच्छी लगती हैं