बहती आँखों ने हमारी शनाख़्त मिटा दी है चेहरे से आरी जिस्म सड़कों पर लुढ़कता है नफ़रत करता है प्यार करता है कोई भी जज़्बा उसे उस की शनाख़्त नहीं लौटाता काँटे मज़ाक़ उड़ाते हैं डांस करते हैं क्या उन्हें आँखों के इन सूराख़ों में उतारा जा सकता है जिन में लावा बह कर आता है और हर उस रास्ते को जला देता है जिस पर रौशनी रेंग कर गुज़र सकती है उस शाहराह तक पहुँचने के लिए अगर हमें अपनी आँखों से हाथ धोना पड़े तो कोई बात नहीं चलो वहाँ चलें जहाँ लोग तकलीफ़-दह चीज़ें फेंक आते हैं