लम्हा लम्हा ख़ूनीं ख़ंजर सदियाँ जीभें हैं साँपों की घाट पे बैठी प्यास की देवी और जादूगर वक़्त की आँखें देख रही हैं मुर्दा घर के इक कमरे के तेज़ धुएँ में एक कुँवारी नंगी औरत चाट रही है अपने ही बे-रंग लहू को मन की आँखें खोल के देखूँ तो क्या देखूँ सब तो सूली पर लटका है सब कुछ लुटा लुटा लगता है कोई चुपके से कहता है नंगी औरत की जांघों में साँप डाल कर मैं सो जाऊँ लेकिन कोई चीख़ रहा है वक़्त की आँखें देख रही हैं लम्हा लम्हा ख़ूनीं ख़ंजर सदियाँ जीभें हैं साँपों की