सब बारिशें हो के थम चुकी थीं रूहों में धनक उतर रही थी मैं ख़्वाब में बात कर रहा था वो नींद में प्यार कर रही थी अहवाल ही और हो रहे थे लज़्ज़त में विसाल रो रहे थे बोसों में धुले-धुलाए दोनों नश्शे में लिपट के सो रहे थे छोटा सा हसीन सा वो कमरा इक आलम-ए-ख़्वाब हो रहा था ख़ुश्बू से गुलाब हो रहा था मस्ती से शराब हो रहा था वो छाँव सा चाँदनी सा बिस्तर हम रंग नहा रहे थे जिस पर यूँ था कि हम अपनी ज़ात के अंदर थे अपना ही एक और मंज़र सैराब मोहब्बतों के धारे बाहम थे वजूद के किनारे मौज़ू-ए-सुख़न, सुख़न थे सारे आलम ही अजीब थे हमारे जागे वो लहू में सिलसिले फिर तन मन के वही थे ज़ाइक़े फिर थम थम के बरस बरस गए फिर पाताल तक हो गए हरे फिर जारी था वो रक़्स-ए-हम-किनारी निकली नई सुब्ह की सवारी ऐसा लगा काएनात सारी इस आन तो है फ़क़त हमारी जब चाँद मिरा नहा के निकला मैं दिल को दिया बना के निकला कश्कोल-ए-दुआ उठा के निकला शायर था सदा लगा के निकला दरिया वो समुंदरों से गहरे वो ख़्वाब गुलाब ऐसे चेहरे सब ज़ावियों हो गए सुनहरे आईनों में जब वो आ के ठहरे