हर एक जज़्बा है मुज़्तरिब क्यों न प्यार करने को चाहता दिल न नफ़रतों का ख़याल कोई ये कैसी पुरवाई चल रही है कि लफ़्ज़ों में ज़ंग सा लगा है हैं धज्जी धज्जी ख़याल सारे बे-रब्त जुमले फटे फटे से हैं बिजलियों के अजीब तेवर जला के रख देंगी ये नशेमन मैं उन को अपना कहूँ भी कैसे वो अपने हो कर भी ग़ैर से हैं हैं खोखली सी ये सारी बातें बजें भी गर तो न सुन सुकूँ मैं सराब के पीछे दौड़ती मैं पकड़ न पाई हूँ गर्द-ए-पा भी छलावा जैसा गुज़र गया वो बिछाए बैठी रही मैं पलकें