ये पूरी काएनात मैं सिर्फ़ तुम्हारे निज़ाम-ए-शम्सी की बात नहीं कर रहा हूँ इस ज़ात का आईना है जो एक लफ़्ज़-ए-कुन से ऐसे कितने ही निज़ाम हाए शम्स ख़ल्क़ कर सकती है और आईना कभी किज़्ब-बयानी से काम नहीं लेता तुम जो नफ़्स-ए-अम्मारा के आईने से देखने के आदी हो कभी ख़ुद को नफ़्स-ए-मुतमइन्ना के दर्पन में नहीं देखते अगर तुम देख सको तो क़ुदरत की ने'मतें तुम्हें कभी सज्दा-ए-शुक्र से उठने न दें सदफ़ समुंदर से अलग हो कर मोती पैदा नहीं कर सकता और बह्र-ए-सदाक़त में उतरे बग़ैर तुम ज़िंदगी के सदफ़ से गौहर-ए-नशात हासिल नहीं कर सकते