जोगिया

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नहा-धो कर नीचे के तीन-साढ़े तीन कपड़े पहने जोगिया रोज़ की तरह उस दिन भी अलमारी के पास आ खड़ी हुई। और मैं अपने हाँ से थोड़ा पीछे हट कर देखने लगा। ऐसे में दरवाज़े के साथ जो लगा तो चूँकि एक बे सुरी आवाज़ पैदा हुई। बड़े भैया जो पास ही बैठे शेव बना रहे थे मुड़ कर बोले, क्या है जुगल? कुछ नहीं मोटे भैया। मैंने उन्हें टालते हुए कहा, गर्मी बहुत है। और मैं फिर सामने देखने लगा। साढ़ी के सिलसिले में जोगिया आज कौन सा रंग चुनती है।
मैं जे-जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में पढ़ता था। रंग मेरे हवास पा छाए रहते थे। रंग मुझे मर्द-औरतों से ज़ियादा नातिक़ मालूम होते थे। और आज भी होते हैं फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि लोग बे मानी बातें भी करते हैं लेकिन रंग कभी मानी से ख़ाली बात नहीं करते।

हमारा मकान कालबा देवी की वादी शीट आग्यारी लेन में था। पारसियों की आग्यारी तो कहीं दूर गली के मोड़ पर थी। यहाँ पर सिर्फ़ मकान थे। आमने-सामने और एक दूसरे से बग़ल-गीर हो रहे थे। इन मकानों की हम आग़ोशियाँ कहीं तो माँ-बच्चे के प्यार की तरह धीमी-धीमी मुलाइम-मुलाइम और साफ़-सुथरी थीं और कहीं मर्द औरत की मोहब्बत की तरह मजनूनाना सीना-ब-सीना लब-ब-लब, ग़लीज़ और मुक़द्दस...
सामने बाँपू घर की क़िस्म के कमरों में जो कुछ होता था। वो हमारे हाँ ज्ञान भवन से साफ़ दिखाई देता। अभी बिजूर की माँ तरकारी छील रही है और चाक़ू से अपना ही हाथ काट लिया है। डंकर भाई ने अहमद आबाद से तिल और तेल के दो पीपे मंगवाए हैं और पंजाबन सबकी नज़रें बचा कर अंडों के छिलके कूड़े के ढेर में फेंक रही है जैसे हमारे ज्ञान भवन से उन लोगों का खाया-पिया सब पता चलता था। ऐसे ही उन्हें भी हमारा सब अज्ञान नज़र आता होगा। [...]

नवमी

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वो अजीब थी। जिस्म देखिए तो एक लड़की सी मालूम होती, चेहरे पर नज़र डालिये तो बिल्कुल बच्ची सी दिखाई देती और अगर आँखों में उतर जाइये तो सारी समूची औरत अंगड़ाइयाँ लेती मिलती। वो सुर्ख़ ऊँचा सा फ़्रॉक और सियाह सलेक्स पहने जगमगा रही थी और सियाह घुँघराले बालों को झटक-झटक कर जीप में अपने सामान का शुमार कर रही थी और मेरे सामने एक दोपहर खिली पड़ी थी। उसने आँगन में क़दम रखते ही अपनी मम्मी से भैया के लिए पूछा था। ऊँचे बग़ैर आस्तीन के ब्लाउज़ और नीची छपी हुई साड़ी में कसी बंधी आँटी ने, जिन्हें अभी अपने बदन पर नाज़ था चमक कर भैया को मुख़ातिब किया, नवमी पूछ रही है कि तुम कौन हो?
भैया ने उदास चेहरे पर सलीक़े से रखी हुई रंजूर आँखें चश्मे के अंदर घुमाईं। रूखे सूखे बालों पर दुबला पतला गंदुमी सा हाथ फेरा। अंकल ने बड़े से बैग को तख़्त पर पटका। पीक थूकने के लिए उगलदान पर झुके और भैया भारी आवाज़ में बोले। भैया की आवाज़ उनकी शख़्सियत को और मुनफ़रिद बना देती है। ग़म में बसी हुई खोजदार आवाज़ से हल्का-हल्का धुआँ सा उठता रहता है और जिसे सुन कर अजनबियत एहसास-ए-कमतरी बन जाती है और ख़्वाह-मख़ाह मुतआरिफ़ होने को जी चाहता है, बहुत छोटी सी थी जब देखा था उसने।

और नवमी को इस तरह देखा जैसे कैलेंडर को देख रहे हों। जवाब इस तरह दिया जैसे आँटी से कह रहे हों उसे बुक्स में रख लीजिए वरना ख़राब हो जाएगा देहात में, और नवमी बेचारी भैया की आवाज़ में शराबोर खड़ी थी। उसकी नज़रें भैया के चेहरे में पैवस्त हो चुकी थीं। अंकल पक्का गाना गाने वालों की तरह खंकार कर बोले, बेटी... मैंने तुम्हें बताया था कि वहाँ गाँव में जहाँ तुम शादी में जा रही हो तुम्हारे एक कज़िन हैं जो बहुत सी किताबों के ऑथर हैं... वही तो हैं ये।
भाबी जो ननद की शादी में भैया से ज़्यादा अपना आपा खोए बैठी थीं एक तरफ़ से बड़बड़ाती निकलीं और भैया को लिए दूसरी तरफ़ चली गईं और भैया ने बे ख़्याली में भी, नवमी की निगाहें भी अपने साथ ही लिए चले गए। और वो बेचारी ख़ाली-ख़ाली आँखें लिए गुम सुम खड़ी रही, जल्दी कीजिए ... पानी लदा खड़ा है। फाटक से किसी ने हाँक लगाई। मैंने आसमान की तरफ़ देखा। सारे में सियाह जामुनी बादल छाए हुए थे और अंधेरा फैला हुआ था जैसे सूरज की बिजली फ़ेल हो गई हो। उस दिन भी ऐसा ही दिल मसोस डालने वाला मौसम था। [...]

जोगिया

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नहा-धो कर नीचे के तीन-साढ़े तीन कपड़े पहने जोगिया रोज़ की तरह उस दिन भी अलमारी के पास आ खड़ी हुई। और मैं अपने हाँ से थोड़ा पीछे हट कर देखने लगा। ऐसे में दरवाज़े के साथ जो लगा तो चूँकि एक बे सुरी आवाज़ पैदा हुई। बड़े भैया जो पास ही बैठे शेव बना रहे थे मुड़ कर बोले, क्या है जुगल? कुछ नहीं मोटे भैया। मैंने उन्हें टालते हुए कहा, गर्मी बहुत है। और मैं फिर सामने देखने लगा। साढ़ी के सिलसिले में जोगिया आज कौन सा रंग चुनती है।
मैं जे-जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में पढ़ता था। रंग मेरे हवास पा छाए रहते थे। रंग मुझे मर्द-औरतों से ज़ियादा नातिक़ मालूम होते थे। और आज भी होते हैं फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि लोग बे मानी बातें भी करते हैं लेकिन रंग कभी मानी से ख़ाली बात नहीं करते।

हमारा मकान कालबा देवी की वादी शीट आग्यारी लेन में था। पारसियों की आग्यारी तो कहीं दूर गली के मोड़ पर थी। यहाँ पर सिर्फ़ मकान थे। आमने-सामने और एक दूसरे से बग़ल-गीर हो रहे थे। इन मकानों की हम आग़ोशियाँ कहीं तो माँ-बच्चे के प्यार की तरह धीमी-धीमी मुलाइम-मुलाइम और साफ़-सुथरी थीं और कहीं मर्द औरत की मोहब्बत की तरह मजनूनाना सीना-ब-सीना लब-ब-लब, ग़लीज़ और मुक़द्दस...
सामने बाँपू घर की क़िस्म के कमरों में जो कुछ होता था। वो हमारे हाँ ज्ञान भवन से साफ़ दिखाई देता। अभी बिजूर की माँ तरकारी छील रही है और चाक़ू से अपना ही हाथ काट लिया है। डंकर भाई ने अहमद आबाद से तिल और तेल के दो पीपे मंगवाए हैं और पंजाबन सबकी नज़रें बचा कर अंडों के छिलके कूड़े के ढेर में फेंक रही है जैसे हमारे ज्ञान भवन से उन लोगों का खाया-पिया सब पता चलता था। ऐसे ही उन्हें भी हमारा सब अज्ञान नज़र आता होगा। [...]

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