मज़दूर

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‎(1)
शाम। आसमान पर हल्के हल्के बादल। शाम, सुर्ख़ और उन्नाबी। आसमान पर ख़ून, उस जगह जहाँ ‎ज़मीन और आसमान मिलते हैं। उफ़ुक़ पर ख़ून जो ब-तदरीज हल्का होता जाता था, नारंजी और ‎गुलाबी, फिर सब्ज़ और नीलगूँ और सियाही-माइल नीला जो सर के ऊपर सियाह हो गया था। ‎सियाही। सरुपा मौत की सियाही और एक आदमी ज़मीन से बीस फुट ऊँचा खम्बे पर चढ़ा हुआ, ‎बंदर की तरह खम्बे पर चिमटा, एक रस्सी के टुकड़े पर अपने चूतड़ टिकाए एक लच्छे में से तार ‎लगा रहा है।

यूनीवर्सिटी की सड़क पर बिजली की रौशनी के लिए तार और खम्बे, आसूदा-हाल तालिब-ए-इ'ल्मों ‎और मोटरों पर चढ़ने वाले रईसों के लिए रौशनी, क्योंकि मज़दूर को भी अपनी दोज़ख़ भरनी है। ‎ख़ुशहाल और खाते पीते लोगों के लिए, जो क़ीमती कपड़े पहनते हैं, जिनके दिमाग़ों में गोबर भरा ‎होता है। रौशनी करने को खंबों पर चढ़ के, हवा में लटक कर अपनी जान ख़तरा में डालने के बा'द ‎इसको सिर्फ़ छः आने रोज़ मिलते और नौजवान काले कोट और सफ़ेद पाजामे पहने हुए आसूदगी ‎की शान और पैसे के घमंड से इस बंदर पे जो उनकी चर्बी से ढकी हुई आँखों के लिए रौशनी लगाने ‎को चढ़ा हुआ था, एक नज़र डालते हुए गुज़र जाते।
‎“हमारे बोर्डिंग हाऊस के पीछे वाली सड़क पर रौशनी लग रही है। अब तो बिजली की रौशनी होगी। ‎बिजली की रौशनी!” और उनके खोखले दिमाग़ इसी के राग गाते और बिजली के ख़्वाब देखते। ‎लेकिन कोई भी उस मज़दूर का ख़याल न करता जो नंगे बदन हवा में लटका हुआ पेट की आग ‎बुझाने के लिए खम्बे पर तार लगा रहा है और उनके पैरों की अहमक़ाना आवाज़ खट... खट... ख… ‎होती और वो मस्ताना-रवी से चहल-क़दमी करते हुए गुज़र जाते और मज़दूर की रगें और पट्ठे ‎मेहनत के असर से उसके जिस्म पर चमकते दिखाई देते और रात बढ़ती आती थी। [...]

घर तक

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लिंगा
स्वामी

हम रास्ता भूल गए हैं। लेकिन मेरा ख़्याल है, हमारा गाँव यहाँ से क़रीब ही है। उधर देखिए स्वामी। सफ़ेद लकीर दिखाई दे रही है ना, वही होगी सड़क। नहीं वो तो पानी बह रहा है। एक छोटा सा नाला।
इधर आ, इस टीले पर चढ़ कर देखें। शायद कुछ पता चले। [...]

मुरासिला

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मुकर्रमी! आपके मूक़र अख़बार के ज़रीए’ मैं मुतअ’ल्लिक़ा हुक्काम को शहर के मग़रिबी इ’लाक़े की तरफ़ मुतवज्जेह कराना चाहता हूँ। मुझे बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि आज जब बड़े पैमाने पर शहर की तौसीअ’ हो रही है और हर इ’लाक़े के शहरियों को जदीद-तरीन सहूलतें बहम पहुँचाई जा रही हैं, ये मग़रिबी इ’लाक़ा बिजली और पानी की लाईनों तक से महरूम है। ऐसा मा’लूम होता है कि इस शहर की तीन ही सम्तें हैं। हाल ही में जब एक मुद्दत के बा’द मेरा उस तरफ़ एक ज़रूरत से जाना हुआ तो मुझको शहर का ये इ’लाक़ा बिल्कुल वैसा ही नज़र आया जैसा मेरे बचपन में था।
(1)

मुझे उस तरफ़ जाने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन अपनी वालिदा की वज्ह से मजबूर हो गया। बरसों पहले वो बुढ़ापे के सबब चलने फिरने से माज़ूर हो गई थीं, फिर उनकी आँखों की रौशनी भी क़रीब-क़रीब जाती रही और ज़हन भी माऊफ़ सा हो गया। मा’ज़ूरी का ज़माना शुरू’ होने के बा’द भी एक अ’र्से तक वो मुझको दिन रात में तीन-चार मर्तबा अपने पास बुला कर कपकपाते हाथों से सर से पैर तक टटोलती थीं।
दर-अस्ल मेरे पैदा होने के बा’द ही से उनको मेरी सेहत ख़राब मा’लूम होने लगी थी। कभी उन्हें मेरा बदन बहुत ठंडा महसूस होता, कभी बहुत गर्म, कभी मेरी आवाज़ बदली हुई मा’लूम होती और कभी मेरी आँखों की रंगत में तग़य्युर नज़र आता। हकीमों के एक पुराने ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखने की वज्ह से उनको बहुत सी बीमारियों के नाम और इ’लाज ज़बानी याद थे और कुछ-कुछ दिन बा’द वो मुझे किसी नए मरज़ में मुब्तला क़रार देकर उसके इ’लाज पर इसरार करती थीं। [...]

सुना है आलम-ए-बाला में कोई कीमिया-गर था

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फिर शाम का अंधेरा छा गया। किसी दूर दराज़ की सरज़मीन से, न जाने कहाँ से मेरे कानों में एक दबी हुई सी, छुपी हुई आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता गा रही थी,
चमक तारे से मांगी चांद से दाग़-ए-जिगर मांगा

उड़ाई तीरगी थोड़ी सी शब की ज़ुल्फ़-ए-बर्हम से
तड़प बिजली से पाई, हूर से पाकीज़गी पाई [...]

वक़्फ़ा

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गुज़ाशतेम-ओ-गगुज़शीतेम-ओ-बूदनी हमा बूद
शुदेम-ओ-शुद सुख़न-ए-मा फ़साना-ए-इतफ़ाल

ये निशान हमारे ख़ानदान में पुश्तों से है। बल्कि जहां से हमारे ख़ानदान का सुराग़ मिलना शुरू होता है वहीं से इसका हमारे ख़ानदान में मौजूद होना भी साबित होता है। इस तरह उस की तारीख़ हमारे ख़ानदान की तारीख़ के साथ साथ चलती है।
हमारे ख़ानदान की तारीख़ बहुत मरबूत और क़रीब क़रीब मुकम्मल है, इसलिए कि मेरेअज्दाद को अपने हालात महफ़ूज़ करने और अपना शिजरा दरुस्त रखने का बड़ा शौक़ रहा है। यही वजह है कि हमारे ख़ानदान की तारीख़ शुरू होने के वक़्त से लेकर आज तक उस का तसलसुल टूटा नहीं है। लेकिन इस तारीख़ में बा’ज़ वक़फ़े ऐसे आते हैं... [...]

गिलगित ख़ान

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शहबाज़ ख़ान ने एक दिन अपने मुलाज़िम जहांगीर को जो उसके होटल में अंदर-बाहर का काम करता था उसकी सुस्त-रवी से तंग आकर बरतरफ़ कर दिया। असल में वो सुस्त-रौ नहीं था। इस क़दर तेज़ था कि उसकी हर हरकत शहबाज़ ख़ान को ग़ैर मुतहर्रिक मालूम होती थी।
शहबाज़ ख़ान ने उसको महीने की तनख़्वाह दी। जहांगीर ने उसको सलाम किया और टिकट कटा कर सीधा बलोचिस्तान चला गया जहां कोयले की कांनें निकल रही थीं। उसके और कई दोस्त वहीं चले गए थे। लेकिन उसने गिलगित अपने भाई हमज़ा ख़ान को ख़त लिखा कि वो शहबाज़ ख़ान के यहां मुलाज़मत कर ले क्योंकि उसे अपना ये आक़ा पसंद था।

एक दिन हमज़ा ख़ान, शहबाज़ ख़ान के होटल में आया और एक कार्ड दिखा कर उसने कहा, खू अम मुलाज़मत चाहता है... अमारे भाई ने लिखा है, तुम अच्छा और नेक आदमी है... खू अम भी अच्छा और नेक है... तुम कितना पैसा देगा?”
शहबाज़ ख़ान ने हमज़ा ख़ान की तरफ़ देखा। वो जहांगीर का भाई किसी लिहाज़ से भी दिखाई नहीं देता था। नाटा सा क़द, नाक चौड़ी चपटी। निहायत बदशक्ल। शहबाज़ ख़ान ने उसे एक नज़र देख कर और जहांगीर का ख़त पढ़ कर सोचा कि इसको निकाल बाहर करे। मगर आदमी नेक था, उसने किसी साइल को ख़ाली नहीं जाने दिया था। [...]

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