अन्न-दाता

Shayari By

(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

शलजम

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“खाना भिजवा दो मेरा, बहुत भूक लग रही है।”
“तीन बज चुके हैं, इस वक़्त आपको खाना कहाँ मिलेगा?”

“तीन बज चुके हैं तो क्या हुआ, खाना तो बहरहाल मिलना ही चाहिए। आख़िर मेरा हिस्सा भी तो इस घर में किसी क़दर है।”
“किस क़दर है?” [...]

कोख जली

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घमंडी ने ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया।
घमंडी की माँ उस वक़्त सिर्फ अपने बेटे के इंतेज़ार में बैठी थी। वो ये बात अच्छी तरह जानती थी कि पहले पहर की नींद के चूक जाने से अब उसे सर्दियों की पहाड़ ऐसी रात जाग कर काटना पड़ेगी। छत के नीचे ला-तादाद सरकंडे गिनने के इलावा टिड्डियों की उदास और परेशान करने वाली आवाज़ों को सुनना होगा। दरवाज़े पर-ज़ोर ज़ोर की दस्तक के बावजूद वो कुछ देर खाट पर बैठी रही, इसलिए नहीं कि वो सर्दी में घमंडी को बाहर खड़ा कर के इस के घर में देर से आने की आदत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहती है, बल्कि इसलिए कि घमंडी अब आ ही तो गया है।

यूँ भी बूढ़ी होने की वजह से उस पर एक क़िस्म का ख़ुशगवार आलकस, एक मीठी सी बे-हिसी छाई रहती थी। वो सोने और जागने के दरमयान मुअल्लक़ रहती। कुछ देर बाद माँ ख़ामोशी से उठी। चारपाई पर फिर से औंधी लेट कर उसने अपने पाँव चारपाई से दूसरी तरफ़ लटकाए और घसीट कर खड़ी हो गई। शमादान के क़रीब पहुँच कर उसने बत्ती को ऊँचा किया। फिर वापिस आकर खाट के साँघे में छुपाई हुई हुलास की डिबिया निकाली और इतमीनान से दो चुटकियाँ अपने नथनों में रखकर दो गहरे साँस लिए और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ने लगी। लेकिन तीसरी दस्तक पर यूँ मालूम हुआ जैसे किवाड़ टूट कर ज़मीन पर आ रहेंगे।
“अरे थम जा। उजड़ गए।” माँ ने बरहम हो कर कहा… “मुझे इंतेज़ार दिखाता है और आप एक पल भी तो नहीं ठहर सकता।” [...]

अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

क्वारंटीन

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प्लेग और क्वारंटीन!
हिमाला के पाँव में लेटे हुए मैदानों पर फैल कर हर एक चीज़ को धुँदला बना देने वाली कुहरे के मानिंद प्लेग के ख़ौफ़ ने चारों तरफ़ अपना तसल्लुत जमा लिया था।

शह्​र का बच्चा-बच्चा उसका नाम सुन कर काँप जाता था।
प्लेग तो ख़ौफ़नाक थी ही, मगर क्वारंटीन उससे भी ज़ियादा ख़ौफ़नाक थी। लोग प्लेग से इतने हिरासाँ नहीं थे जितने क्वारंटीन से, और यही वज्ह थी कि महकमा-ए-हिफ़्ज़ान-ए-सेहत ने शह्​रियों को चूहों से बचने की तलक़ीन करने के लिए जो क़द-ए-आदम इश्तिहार छपवाकर दरवाज़ों, गुज़रगाहों और शाहराहों पर लगाया था, उस पर “न चूहा न प्लेग” के उनवान में इज़ाफ़ा करते हुए “न चूहा न प्लेग, न क्वारंटीन” लिखा था। [...]

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