मोना लिसा

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परियों की सर-ज़मीन को एक रास्ता जाता है शाह बलूत और सनोबर के जंगलों में से गुज़रता हुआ जहाँ रुपहली नद्दियों के किनारे चेरी और बादाम के सायों में ख़ूबसूरत चरवाहे छोटी-छोटी बाँसुरियों पर ख़्वाबों के नग़्मे अलापते हैं। ये सुनहरे चाँद की वादी है। never never।and के मग़रूर और ख़ूबसूरत शहज़ादे। पीटर पैन का मुल्क जहाँ हमेशा सारी बातें अच्छी-अच्छी हुआ करती हैं। आइसक्रीम की बर्फ़ पड़ती है। चॉकलेट और प्लम केक के मकानों में रहा जाता है। मोटरें पैट्रोल के बजाए चाय से चलती हैं। बग़ैर पढ़े डिग्रियाँ मिल जाती हैं।
और कहानियों के इस मुल्क को जाने वाले रास्ते के किनारे-किनारे बहुत से साइन पोस्ट खड़े हैं जिन पर लिखा है, “सिर्फ़ मोटरों के लिए”

“ये आम रास्ता नहीं”, और शाम के अँधरे में ज़न्नाटे से आती हुई कारों की तेज़ रौशनी में नर्गिस के फूलों की छोटी सी पहाड़ी में से झाँकते हुए ये अल्फ़ाज़ जगमगा उठते हैं, “प्लीज़ आहिस्ता चलाइए... शुक्रिया!”
और बहार की शगुफ़्ता और रौशन दोपहरों में सुनहरे बालों वाली कर्ली लौक्स, सिंड्रेला और स्नो-वाईट छोटी-छोटी फूलों की टोकरियाँ लेकर इस रास्ते पर चेरी के शगूफ़े और सितारा-ए-सहरी की कलियाँ जमा’ करने आया करती थीं। [...]

मलफ़ूज़ात-ए-हाजी गुल बाबा बेक्ताशी

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रात-भर मेरे दरीचे के नीचे आज़रबायजानी तुर्की में क़व्वाली हुआ की। सुब्ह मुँह-अँधेरे आवाज़ें मद्धम पढ़ें और कोह-ए-क़ाफ़ के धुँदलके में गईं।
जब सूरज निकला मैंने सराय के बाहर आकर आसमान पर रुख़ को तलाश किया। लेकिन रुख़ के बजाए एक फ़ाख़्ता अरारत की सिम्त से उड़ती हुई आई। फ़ाख़्ता की चोंच में एक अ’दद ख़त था। सेहन में आकर वो उस समावार पर बैठ गई जो अंगूरों की बेल के नीचे एक कोने में तिपाई पर रखा था। फ़ाख़्ता ने पुतलियाँ घुमा कर चारों तरफ़ देखा और मुझ पर उसकी नज़र पड़ी। वो फ़ुदक कर समावार से उतरी, लिफ़ाफ़ा मेरे नज़दीक गिराया और कोह-ए-अरारत की तरफ़ फिर से उड़ गई।

सराय के मालिक ने बग़ैर दूध की चाय फ़िंजान में उंडेल कर मुझे दी और बोला, “हानम। शायद रुख़ ने आपको इत्तिला भेजी है कि उसने अपनी फ़्लाईट पोस्टपोन की।”
“हो सकता है”, मैंने जवाब दिया। [...]

मीरास

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जब टीपू सुलतान का घोड़ा टी टी नगर से गुज़रा और बाणगंगा के पुल के क़रीब पहुंचा तो एक जलेबी वाले को देखकर घोड़ा मचल गया। थके-मारे घोड़े ने बहुत दिनों से जलेबियों की शक्ल नहीं देखी थी। वो बिदका और दोलतियाँ उछालने लगा। टीपू अपने घोड़े को बहुत चाहता था। पस उसने जलेबी वाले को आवाज़ दी और आधा किलो जलेबियां उसी वक़्त ख़रीद लीं। जलेबी वाले ने एक अख़बार में तौल कर जलेबियां दीं, टीपू उतरा और अपने घोड़े को ताज़ी ताज़ी जलेबियां खिलाने लगा। जलेबियां ख़त्म हुईं तो टीपू की नज़र अख़बार के टुकड़े में एक ख़बर पर पड़ी। टीपू को ख़बर की सुर्ख़ी ने अपनी तरफ़ खींच लिया। वो सुर्ख़ी कुछ इस तरह थी
विलायत से शिवा जी की तलवार भवानी की वापसी का मुतालिबा.

टीपू ने शिवा जी के चर्चे मिडल स्कूल में सुन रखे थे। उसे मालूम था कि शिवा जी बेजिगर इन्सान था और उसके तोपखाने में मुसलमान तोपचियों को बड़े अच्छे अच्छे ओह्दे मिले हुए थे जिन्होंने बहुत सी जंगों में शिवा जी के साथ मैदान-ए-जंग में शुजाअत का सबूत दिया था और मग़्लूं के दाँत खट्टे कर दिए थे लेकिन जहां तक उसके इल्म में था शिवा जी की तलवार एक अच्छी तलवार ज़रूर थी। लेकिन उसमें ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी जिसके खो जाने पर अफ़सोस किया जाये। फिर ये कि शिवा जी एक सरदार था उसके क़ब्ज़े में न जाने कितनी तलवारें रही होंगी तो फिर ये भवानी कौन सी तलवार थी जिसकी वापसी के लिए...
यकायक टीपू सुलतान के ख़्यालात का सिलसिला टूट गया। एक दम से उसे एक फ़िल्म याद आगई जो बनारस के घाटों पर पूजापाट कराने वाले कुछ पंडों पर बनाई गई थी और उसमें एक मोटा सा तगड़ा सा आदमी हाथ में एक भयानक सी तलवार लिए एक मुसाफ़िर की गर्दन मारने से पहले 'जय भवानी' का डरावना नारा लगाता है। क़रीब था कि टीपू सिनेमा हाल से उठ आता कि उसके दोस्त ने उसको समझाया कि ये हक़ीक़त नहीं फ़िल्म है। [...]

घर तक

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लिंगा
स्वामी

हम रास्ता भूल गए हैं। लेकिन मेरा ख़्याल है, हमारा गाँव यहाँ से क़रीब ही है। उधर देखिए स्वामी। सफ़ेद लकीर दिखाई दे रही है ना, वही होगी सड़क। नहीं वो तो पानी बह रहा है। एक छोटा सा नाला।
इधर आ, इस टीले पर चढ़ कर देखें। शायद कुछ पता चले। [...]

मोना लिसा

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परियों की सर-ज़मीन को एक रास्ता जाता है शाह बलूत और सनोबर के जंगलों में से गुज़रता हुआ जहाँ रुपहली नद्दियों के किनारे चेरी और बादाम के सायों में ख़ूबसूरत चरवाहे छोटी-छोटी बाँसुरियों पर ख़्वाबों के नग़्मे अलापते हैं। ये सुनहरे चाँद की वादी है। never never।and के मग़रूर और ख़ूबसूरत शहज़ादे। पीटर पैन का मुल्क जहाँ हमेशा सारी बातें अच्छी-अच्छी हुआ करती हैं। आइसक्रीम की बर्फ़ पड़ती है। चॉकलेट और प्लम केक के मकानों में रहा जाता है। मोटरें पैट्रोल के बजाए चाय से चलती हैं। बग़ैर पढ़े डिग्रियाँ मिल जाती हैं।
और कहानियों के इस मुल्क को जाने वाले रास्ते के किनारे-किनारे बहुत से साइन पोस्ट खड़े हैं जिन पर लिखा है, “सिर्फ़ मोटरों के लिए”

“ये आम रास्ता नहीं”, और शाम के अँधरे में ज़न्नाटे से आती हुई कारों की तेज़ रौशनी में नर्गिस के फूलों की छोटी सी पहाड़ी में से झाँकते हुए ये अल्फ़ाज़ जगमगा उठते हैं, “प्लीज़ आहिस्ता चलाइए... शुक्रिया!”
और बहार की शगुफ़्ता और रौशन दोपहरों में सुनहरे बालों वाली कर्ली लौक्स, सिंड्रेला और स्नो-वाईट छोटी-छोटी फूलों की टोकरियाँ लेकर इस रास्ते पर चेरी के शगूफ़े और सितारा-ए-सहरी की कलियाँ जमा’ करने आया करती थीं। [...]

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