फ़ारस रोड से आप उस तरफ़ गली में चले जाइए जो सफ़ेद गली कहलाती है तो उसके आख़िरी सिरे पर आपको चंद होटल मिलेंगे। यूँ तो बंबई में क़दम क़दम पर होटल और रेस्तोराँ होते हैं मगर ये रेस्तोराँ इस लिहाज़ से बहुत दिलचस्प और मुनफ़रिद हैं कि ये उस इलाक़े में वाक़े हैं जहाँ भांत भांत की लौंडियां बस्ती हैं। एक ज़माना गुज़र चुका है। बस आप यही समझिए कि बीस बरस के क़रीब, जब मैं उन रेस्तोरानों में चाय पिया करता था और खाना खाया करता था। सफ़ेद गली से आगे निकल कर “प्ले-हाऊस” आता है। उधर दिन भर हाव-हू रहती है। सिनेमा के शो दिन भर चलते रहते थे। चम्पियाँ होती थीं। सिनेमा घर ग़ालिबन चार थे। उनके बाहर घंटियां बजा बजा कर बड़े समाअत-पाश तरीक़े पर लोगों को मदऊ करते, “आओ आओ... दो आने में फस्ट क्लास खेल... दो आने में!” बा'ज़ औक़ात ये घंटियां बजाने वाले ज़बरदस्ती लोगों को अंदर धकेल देते थे। बाहर कुर्सीयों पर चम्पी कराने वाले बैठे होते थे जिनकी खोपड़ियों की मरम्मत बड़े साइंटिफ़िक तरीक़े पर की जाती थी।
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