आनंदी

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बलदिया का इजलास ज़ोरों पर था। हाल खचाखच भरा हुआ था और खिलाफ़-ए-मा’मूल एक मेम्बर भी ग़ैर-हाज़िर न था। बलदिया के ज़ेर-ए-बहस मस्अला ये था कि ज़नान-बाज़ारी को शह्​र बदर कर दिया जाए क्योंकि उनका वुजूद इन्सानियत, शराफ़त और तहज़ीब के दामन पर बदनुमा दाग़ है।
बलदिया के एक भारी भरकम रुक्न जो मुल्क-ओ-क़ौम के सच्चे ख़ैर-ख़्वाह और दर्द-मंद समझे जाते थे निहायत फ़साहत से तक़रीर कर रहे थे।

“और फिर हज़रात आप ये भी ख़याल फ़रमाइए कि उनका क़याम शह्​र के एक ऐसे हिस्से में है जो न सिर्फ़ शह्​र के बीचों बीच आम गुज़र-गाह है बल्कि शह्​र का सबसे बड़ा तिजारती मर्कज़ भी है चुनाँचे हर शरीफ़ आदमी को चार-ओ-ना-चार इस बाज़ार से गुज़रना पड़ता है। अलावा अज़ीं शुरफ़ा की पाक दामन बहू बेटियाँ इस बाज़ार की तिजारती अहमियत की वज्ह से यहाँ आने और ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करने पर मजबूर हैं। साहिबान! ये शरीफ़ ज़ादियाँ इन आबरू बाख़्ता, नीम उरियाँ बेस्वाओं के बनाव सिंगार को देखती हैं तो क़ुदरती तौर पर उनके दिल में भी आराइश-ओ-दिलरुबाई की नई-नई उमंगें और वलवले पैदा होते हैं और वो अपने ग़रीब शौहरों से तरह-तरह के गाज़ों, लेवेनडरों, ज़र्क़-बर्क़ साड़ियों और क़ीमती ज़ेवरों की फरमाइशें करने लगती हैं। नतीजा ये होता है कि उनका पुर-मसर्रत घर, उनका राहत-कदा हमेशा के लिए जहन्नम का नमूना बन जाता है।”
“और साहिबान फिर आप ये भी तो ख़याल फ़रमाइए कि हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम जो दर्सगाहों में ता’लीम पा रहे हैं और उनकी आइन्दा तरक़्क़ियों से क़ौम की उम्मीदें वाबस्ता हैं और क़यास कहता है कि एक न एक दिन क़ौम की कश्ती को भंवर से निकालने का सहरा उन्ही के सर बंधेगा, उन्हें भी सुब्ह शाम इसी बाज़ार से होकर आना-जाना पड़ता है। ये क़हबाएँ हर वक़्त बारा उभरन सोलह सिंगार किए राह-रौ पर बे-हिजाबाना निगाह-ओ-मिज़ह के तीर-ओ-सिनाँ बरसाती और उसे दावत-ए-हुस्न देती हैं। क्या इन्हें देख कर हमारे भोले-भाले ना-तजुर्बेकार जवानी के नशे में मह्व, सूद-ओ-ज़ियाँ से बे-परवाह नौ-निहालान-ए-क़ौम अपने जज़्बात-ओ-ख़यालात और अपनी आला सीरत को मा’सियत के मस्मूम असरात से महफ़ूज़ रख सकते हैं? साहिबान! क्या उनका हुस्न ज़ाहिद फ़रेब हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम को जादा-ए-मुस्तक़ीम से भटका कर, उनके दिल में गुनाह की पुर-असरार लज़्ज़तों की तिश्नगी पैदा करके एक बेकली, एक इज़्तिराब, एक हैजान बरपा न कर देता होगा।” [...]

सदक़े उसके

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मुजरा ख़त्म हुआ, तमाशाई रुख़्सत हो गए तो उस्तादी जी ने कहा,
“सब कुछ लुटा पिटा कर यहां आए थे लेकिन अल्लाह मियां ने चंद दिनों में ही वारे न्यारे कर दिए।”


वापसी का टिकट

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इंसान ने इंसान को ईज़ा पहुँचाने के लिए जो मुख़्तलिफ़ आले और तरीक़े इख़्तियार किए हैं उनमें सबसे ज़ियादा ख़तरनाक है टेलीफ़ोन साँप के काटे का मंत्र तो हो सकता है मगर टेलीफ़ोन के मारे को तो पानी भी नहीं मिलता।
मुझे तो रात-भर इस कम्बख़्त के डर से नींद नहीं आती कि सुब्ह-सवेरे न जाने किस की मनहूस आवाज़ सुनाई देगी। दो ढ़ाई बजे आँख लग भी गई तो ख़्वाब में क्या देखता हूँ कि सारी दुनिया की घंटियाँ और घंटे-घड़ियाल बेक-वक़्त बजने शुरू’ हो गए। मंदिरों के पीतल के बड़े-बड़े घंटे, पुलिस के थाने का घड़ियाल, दरवाज़ों की बिजली वाली घंटियाँ, साईकलों की ट्रिंग-ट्रिंग, फ़ायर इंजनों की क्लिंग-क्लिंग। और जब आँख खुलती है तो मा’लूम होता है कि टेलीफ़ोन की घंटी बज रही है। इस ग़ैर वक़्त रात को किस का फ़ोन आया है? ज़रूर ट्रंक काल होगी। पल-भर में न जाने कितने वहम दिल धड़काते हैं। एक दोस्त मद्रास में बीमार है। एक रिश्तेदार लंदन और बंबई के दरमियान हवाई जहाज़ में है। भतीजे का मैट्रिक का नतीजा निकलने वाला है।

मैं फ़ोन उठाकर कहता हूँ, “हैलो।”
दूसरी तरफ़ से घबराई हुई आवाज़ आती है, “चुन्नी भाई, केम छो।” मैं कहता हूँ कि यहाँ न कोई चुन्नी भाई है न केम छो। मगर वो कहता है, “चुन्नी भाई। टाटा डलीज़ डार पर जा रहा है।” मैं कहता हूँ, “जाने दो।” [...]

हतक

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दिन भर की थकी मान्दी वो अभी अभी अपने बिस्तर पर लेटी थी और लेटते ही सो गई। म्युनिसिपल कमेटी का दारोग़ा सफ़ाई, जिसे वो सेठ जी के नाम से पुकारा करती थी, अभी अभी उसकी हड्डियाँ-पस्लियाँ झिंझोड़ कर शराब के नशे में चूर, घर वापस गया था... वो रात को यहीं पर ठहर जाता मगर उसे अपनी धर्मपत्नी का बहुत ख़याल था जो उससे बेहद प्रेम करती थी।
वो रुपये जो उसने अपनी जिस्मानी मशक़्क़त के बदले उस दारोगा से वसूल किए थे, उसकी चुस्त और थूक भरी चोली के नीचे से ऊपर को उभरे हुए थे। कभी कभी सांस के उतार चढ़ाव से चांदी के ये सिक्के खनखनाने लगते और उसकी खनखनाहट उसके दिल की ग़ैर-आहंग धड़कनों में घुल मिल जाती। ऐसा मालूम होता कि उन सिक्कों की चांदी पिघल कर उसके दिल के ख़ून में टपक रही है!

उसका सीना अंदर से तप रहा था। ये गर्मी कुछ तो उस ब्रांडी के बाइस थी जिसका अद्धा दरोग़ा अपने साथ लाया था और कुछ उस “ब्यौड़ा” का नतीजा थी जिसका सोडा ख़त्म होने पर दोनों ने पानी मिला कर पिया था।
वो सागवान के लम्बे और चौड़े पलंग पर औंधे मुँह लेटी थी। उसकी बाहें जो काँधों तक नंगी थीं, पतंग की उस काँप की तरह फैली हुई थीं जो ओस में भीग जाने के बाइस पतले काग़ज़ से जुदा हो जाये। दाएं बाज़ू की बग़ल में शिकन आलूद गोश्त उभरा हुआ था जो बार बार मूंडने के बाइस नीली रंगत इख़्तियार कर गया था जैसे नुची हुई मुर्ग़ी की खाल का एक टुकड़ा वहां पर रख दिया गया है। [...]

जानकी

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पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पेशावर से अ’ज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उसको या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ियत काफ़ी है, उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी।
वक़्त का तो इतना ज़्यादा सवाल नहीं था लेकिन मुसीबत ये थी कि मैंने ऐसा काम कभी किया ही नहीं था। फ़िल्म कंपनियों में अक्सर वही आदमी औरतें लेकर आते हैं जिन्हें उनकी कमाई खानी होती है। ज़ाहिर है कि मैं बहुत घबराया लेकिन फिर मैंने सोचा, अ’ज़ीज़ इतना पुराना दोस्त है, जाने किस यक़ीन के साथ भेजा है, उसको मायूस नहीं करना चाहिए।

ये सोच कर भी एक गो न तस्कीन हुई कि औरत के लिए, अगर वो जवान हो, हर फ़िल्म कंपनी के दरवाज़े खुले हैं। इतनी तरद्दुद की बात ही क्या है, मेरी मदद के बग़ैर ही उसे किसी न किसी फ़िल्म कंपनी में जगह मिल जाएगी।
ख़त मिलने के चौथे रोज़ वो पूना पहुंच गई। कितना लंबा सफ़र तय करके आई थी, पेशावर से बंबई और बंबई से पूना। प्लेटफार्म पर चूँकि उसको मुझे पहचानना था, इसलिए गाड़ी आने पर मैंने एक सिरे से डिब्बों के पास से गुज़रना शुरू किया। मुझे ज़्यादा दूर न चलना पड़ा क्योंकि सेकंड क्लास के डिब्बे से एक मुतवस्सित क़द की औरत जिसके हाथ में मेरी तस्वीर थी उतरी। [...]

सोनोरल

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बुशरा ने जब तीसरी मर्तबा ख़्वाब-आवर दवा सोनोरल की तीन टिकियां खा कर ख़ुदकुशी की कोशिश की तो मैं सोचने लगा कि आख़िर ये सिलसिला क्या है। अगर मरना ही है तो संख्या मौजूद है, अफ़ीम है। इन सुमूम के इलावा और भी ज़हर हैं जो बड़ी आसानी से दस्तयाब हैं। हर बार सोनोरल, ही क्यों खाई जाती है।
इसमें कोई शक नहीं कि ये ख़्वाब-आवर दवा ज़्यादा मिक़दार में खाई जाये तो मौत का बाइस होती है लेकिन बुशरा का तीन मर्तबा सिर्फ़ उसे ही इस्तेमाल करना ज़रूर कोई मानी रखता था। पहले मैंने सोचा चूँकि दो मर्तबा दवा खाने से उसकी मौत वाक़े नहीं हुई इसलिए वो एहतियातन उसे ही इस्तेमाल करती है और उसे अपने इक़दाम-ए-ख़ुदकुशी से जो असर पैदा करना होता है, मौत के इधर-उधर रह कर कर लेती है। लेकिन मैं सोचता था कि वो इधर उधर भी हो सकती थी। ये कोई सौ फ़ीसद महफ़ूज़ तरीक़ा नहीं था।

तीसरी मर्तबा जब उसने बत्तीस गोलियां खाईं तो उसके तीसरे शौहर को जो पी.डब्ल्यू.डी में सब ओवरसियर हैं, सुबह साढ़े छः बजे के क़रीब पता चला कि वो फ़ालिजज़दा भैंस की मानिंद बेहिस-ओ-हरकत पलंग पर पड़ी थी। उसको ये ख़्वाब-आवर दवा खाए ग़ालिबन तीन-चार घंटे हो चुके थे।
सब ओवरसियर साहब सख़्त परेशान और लर्ज़ां मेरे पास आए। मुझे सख़्त हैरत हुई, इसलिए कि बुशरा से शादी करने के बाद वो मुझे क़तअन भूल चुके थे। इससे पहले वो हर रोज़ मेरे पास आते और दोनों इकट्ठे बीअर या विस्की पिया करते थे। [...]

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