रात-भर मेरे दरीचे के नीचे आज़रबायजानी तुर्की में क़व्वाली हुआ की। सुब्ह मुँह-अँधेरे आवाज़ें मद्धम पढ़ें और कोह-ए-क़ाफ़ के धुँदलके में गईं। जब सूरज निकला मैंने सराय के बाहर आकर आसमान पर रुख़ को तलाश किया। लेकिन रुख़ के बजाए एक फ़ाख़्ता अरारत की सिम्त से उड़ती हुई आई। फ़ाख़्ता की चोंच में एक अ’दद ख़त था। सेहन में आकर वो उस समावार पर बैठ गई जो अंगूरों की बेल के नीचे एक कोने में तिपाई पर रखा था। फ़ाख़्ता ने पुतलियाँ घुमा कर चारों तरफ़ देखा और मुझ पर उसकी नज़र पड़ी। वो फ़ुदक कर समावार से उतरी, लिफ़ाफ़ा मेरे नज़दीक गिराया और कोह-ए-अरारत की तरफ़ फिर से उड़ गई। सराय के मालिक ने बग़ैर दूध की चाय फ़िंजान में उंडेल कर मुझे दी और बोला, “हानम। शायद रुख़ ने आपको इत्तिला भेजी है कि उसने अपनी फ़्लाईट पोस्टपोन की।” “हो सकता है”, मैंने जवाब दिया।
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