वकालत

Shayari By

मंज़ूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई
अपना बयान हुस्न-ए-तबीयत नहीं मुझे

वकालत भी क्या ही उम्दा... आज़ाद पेशा है। क्यों? सुनिए में बताता हूँ।
(1) [...]

अंगूठी की मुसीबत

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(1)
मैंने शाहिदा से कहा, तो मैं जा के अब कुंजियाँ ले आऊँ।

शाहिदा ने कहा, आख़िर तू क्यों अपनी शादी के लिए इतनी तड़प रही है? अच्छा जा।
मैं हँसती हुई चली गई। कमरे से बाहर निकली। दोपहर का वक़्त था और सन्नाटा छाया हुआ था। अम्माँ जान अपने कमरे में सो रही थीं और एक ख़ादिमा पंखा झल रही थी। मैं चुपके से बराबर वाले कमरे में पहुंची और मसहरी के तकिया के नीचे से कुंजी का गुच्छा लिया। सीधी कमरे पर वापस आई और शाहिदा से कहा, जल्दी चलो। [...]

परेशानी का सबब

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नईम मेरे कमरे में दाख़िल हुआ और ख़ामोशी से कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उसकी तरफ़ नज़र उठा कर देखा और अख़बार की आख़िरी कापी के लिए जो मज़मून लिख रहा था उसको जारी रखने ही वाला था कि मअ’न मुझे नईम के चेहरे पर एक ग़ैरमामूली तबदीली का एहसास हुआ। मैंने चश्मा उतार कर उसकी तरफ़ फिर देखा और कहा, “क्या बात है नईम, मालूम होता है तुम्हारी तबीयत नासाज़ है।”
नईम ने अपने ख़ुश्क लबों पर ज़बान फेरी और जवाब दिया, “क्या बताऊं, अ’जीब मुश्किल में जान फंस गई है। बैठे बिठाए एक ऐसी बात हुई है कि मैं किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहा।”

मैंने काग़ज़ की जितनी पर्चियां लिखी थीं जमा करके एक तरफ़ रख दीं और ज़्यादा दिलचस्पी लेकर उससे पूछा, “कोई हादिसा पेश आ गया... फ़िल्म कंपनी में किसी एक्ट्रेस से।”
नईम ने फ़ौरन ही कहा, “नहीं भाई, एक्ट्रेस-वेक्ट्रेस से कुछ भी नहीं हुआ। एक और ही मुसीबत में जान फंस गई है। तुम्हें फ़ुर्सत हो तो मैं सारी दास्तान सुनाऊं।” [...]

वकालत

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मंज़ूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई
अपना बयान हुस्न-ए-तबीयत नहीं मुझे

वकालत भी क्या ही उम्दा... आज़ाद पेशा है। क्यों? सुनिए में बताता हूँ।
(1) [...]

चोर

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मुझे बेशुमार लोगों का क़र्ज़ अदा करना था और ये सब शराबनोशी की बदौलत था। रात को जब मैं सोने के लिए चारपाई पर लेटता तो मेरा हर क़र्ज़ ख़्वाह मेरे सिरहाने मौजूद होता... कहते हैं कि शराबी का ज़मीर मुर्दा होजाता है, लेकिन मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि मेरे साथ मेरे ज़मीर का मुआमला कुछ और ही था। वो हर रोज़ मुझे सरज़निश करता और मैं ख़फ़ीफ़ हो के रह जाता।
वाक़ई मैंने बीसियों आदमियों से क़र्ज़ लिया था। मैंने एक रात सोने से पहले बल्कि यूं कहिए कि सोने की नाकाम कोशिश करने से पहले हिसाब लगाया तो क़रीब क़रीब डेढ़ हज़ार रुपए मेरे ज़िम्मे निकले। मैं बहुत परेशान हुआ, मैंने सोचा ये डेढ़ हज़ार रुपए कैसे अदा होंगे। बीस-पच्चीस रोज़ाना की आमदन है लेकिन वो मेरी शराब के लिए बमुश्किल काफ़ी होते हैं।

आप यूं समझिए कि हर रोज़ की एक बोतल... थर्ड क्लास रम की... दाम मुलाहिज़ा हों... सोलह रुपए... सोलह रुपए तो एक तरफ़ रहे, उनके हासिल करने में कम-अज़-कम तीन रुपए टांगे पर सर्फ़ होजाते थे। काम होता नहीं था, बस पेशगी पर गुज़ारा था। लेकिन जब पेशगी देने वाले तंग आगए तो उन्होंने मेरी शक्ल देखते ही कोई न कोई बहाना तराश लिया या इससे पेशतर कि मैं उनसे मिलूं कहीं ग़ायब होगए।
आख़िर कब तक वो मुझे पेशगी देते रहते... लेकिन मैं मायूस न होता और ख़ुदा पर भरोसा रख कर किसी न किसी हीले से दस पंद्रह रुपए उधार लेने में कामयाब होजाता। [...]

वो तरीक़ा तो बता दो तुम्हें चाहें क्यूँकर?

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बहार की एक सुनहरी सुबह में सूफ़ी इत्मीनान से बैठी नफ़्सियाती मुबाहिसे की एक किताब के दलायल-ए-कूफ़ी के घोंटों की इमदाद से दिमाग़ में उतारने की कोशिश कर रही थी। अचानक रेहानी अपने कालेज का ब्लेज़ पहने हाँपते हुए दरीचे में से अंदर कमरे में कूद पड़ा।
तुम...!

मैं!
सूफ़ी, चोरों की शक्ल बनाए इधर-उधर क्या देख रहे हो? [...]

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