शातिर की बीवी

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उम्दा किस्म का सियाह-रंग का चमकदार जूता पहन कर घर से बाहर निकलने का असल लुतफ़ तो जनाब जब है जब मुँह में पान भी हो, तंबाकू के मज़े लेते हुए जूते पर नज़र डालते हुए बेद हिलाते जा रहे हैं। यही सोच कर में जल्दी-जल्दी चलते घर से दौड़ा। जल्दी में पान भी ख़ुद बनाया। अब देखता हूँ तो छालीया नदारद। मैंने ख़ानम को आवाज़ दी कि छालीया लाना और उन्होंने उस्तानी जी को पुकारा। उस्तानी जी वापिस मुझे पुकारा कि वो सामने ताक़ में रखी है। मैं दौड़ा हुआ पहुंचा। एक रकाबी में कटी और बे कटी यानी साबित छालीया रखी हुई थी। सरौता भी रखा हुआ था और सुबे से ताज्जुब की बात ये कि शतरंज का एक रख़स भी छालीया के साथ कटा रखा था। इस के तीन टुकड़े थे। एक तो आधा और दो पाओ पाओ। साफ़ ज़ाहिर है कि छालीया के धोके में कतरा गया है, मगर यहां किधर से आया। ग़ुस्सा और रंज तो गुमशुदगी का वैसे ही था। अब रुख की हालत-ए-ज़ार जो देखी तो मेरा वही हाल हुआ जो अली-बाबा का क़ासिम की लाश को देखकर हुआ था। ख़ानम के सामने जा कर रकाबी जूं की तूं रख दी। ख़ानम ने भवें चढ़ा कर देखा और यक-दम उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर ताज्जु-बख़ेज़ मुस्कुराहट सी आकर रख गई और उन्होंने मस्नूई ताज्जुब से उस्तानी जी की तरफ़ रकाबी करते हुए देखा। उस्तानी जी एक दम से भवें चढ़ा कर दाँतों तले ज़बान दाब के आँखें फाड़ दें, फिर संजीदा हो कर बोलीं,

जब ही तो मैं कहूं या अल्लाह इतनी मज़बूत और सख़्त छालीया कहाँ से आ गई। कल रात अंधेरे में कट गया। जब से रकाबी जूं की तूं वहीं रखी है।
अजी ये यहां आया कैसे ? मैंने तेज़ हो कर कहा। [...]

इक्का

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दस बजे हैं। लेडी हिम्मत क़दर ने अपनी मोटी सी नाज़ुक कलाई पर नज़र डालते हुए जमाही ली। नवाब हिम्मत क़दर ने अपनी ख़तरनाक मूंछों से दाँत चमका कर कहा। ग्यारह, साढे़ गया बजे तक तो हम ज़रूर फ़ो... होनच... बिग...
मोटर को एक झटका लगा और तेवरी पर बल डाल कर नवाब साहिब ने एक छोकरे के साथ मोड़ का पाए गढ़े से निकाला और अजीब लहजा में कहा। लाहौल वला क़ोৃ कच्ची सड़क...

गर्द-ओ-ग़ुबार का एक तूफान-ए-अज़ीम पाए के नीचे से उठा कि जो हमने अपने मोटर के पीछे छोड़ा। कितने मेल और होंगे ? लेडी हिम्मत क़दर ने मुस्कुराते हुए पूछा।
मैंने कुछ संजीदगी से जवाब दिया। अभी अट्ठाईस मेल और हैं। नवाब साहिब ने मोटर की रफ़्तार और तेज़ कर दी। [...]

रुमूज़-ए-ख़ामोशी

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मैं चार बजे की गाड़ी से घर वापिस आ रहा था। दस बजे की गाड़ी से एक जगह गया था और चूँकि उसी रोज़ वापिस आना था लिहाज़ा मेरे पास अस्बाब वग़ैरा कुछ ना था। सिर्फ एक स्टेशन रह गया था। गाड़ी रुकी तो मैंने देखा कि एक साहिब सैकिण्ड क्लास के डिब्बे से उतरे। उनका क़द्द-ए-बला मुबालग़ा छः फुट था। बड़ी बड़ी मूँछें रोबदार चेहरे पर हुआ से हल रही थीं। नैकर और क़मीज़ पहने हुए पूरे पहलवान मालूम होते थे। ये किसी का इंतिज़ार कर रहे थे।दूर से उन्होंने एक आदमी को... जो कि ग़ालिबन उनका नौकर था देखा। चशम ज़ोन में उनका चेहरा ग़ज़बनाक हो गया। मैं बराबर वाले डीवढ़े दर्जे में बैठा था। एक साहिब ने इन ख़ौफ़नाक जवान को देखा और आप ही कहा। ये ख़ूनी मालूम होता है। मैंने उनकी तरफ़ देखा और फिर इन ख़ौफ़नाक हज़रत के ग़ज़बनाक चेहरे को देखा और दिल ही दिल में उनकी राय से इत्तिफ़ाक़ किया। आप यक़ीन करें कि उनकी आँखें शोला की मानिंद थीं और नौकर के आते ही इस ज़ोर से उन्होंने इस को एक क़दम आगे बढ़ा कर डिपटा कि वो डर कर एक दम से पीछे हटा और गार्ड साहिब से जो उस के बिलकुल ही क़रीब थे लड़ते लड़ते बच्चा। गार्ड साहिब सीटी बजाना मुल्तवी कर के एक तरफ़ को हो गए। उन्होंने एक निगाह इलतिफ़ात मुलाज़िम पर डाली और फिर इन हज़रत की तरफ़ देखा। दोनों मुस्कुराए गाड़ी चल दी।
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गाड़ी स्टेशन पर रुकी और मैं उतरा। ये हज़रत भी उतरे। आप यक़ीन मानें कि मैं समझा कि मुझे कोई बिला लिपट गई जब उन्होंने एक दम से मुझे बाओ कर के चपटा लिया। आसल उन्होंने कहा था। तुम कहाँ। अगर उनकी तोंद कुछ नरम ना होती तो शाहिद मेरी एक आधी पिसली ज़रूर शिकस्त हो जाती। छूटते ही हाथ पकड़ लिया और हंसकर कहा, अब तुम्हें नहीं छोड़ेंगे।
यहां अर्ज़ करना चाहता हूँ कि मुझको फज़ूलगो से जितनी नफ़रत थी... (अब नहीं है )... उतनी किसी चीज़ से ना थी। देखता था कि लोग बातें कर रहे हैं। ख़्वाह-मख़ाह एक दूसरे की बात काट रहा है और हर शख़्स की ये कोशिश है कि दम-ब-ख़ुद हो कर मेरी ही बात पर सब कान धरें। बसा-औक़ात मेरी ग़ैरमामूली ख़ामोशी पर एतराज़ होता। मुझसे शिकायत की जाती कि मैं बातों में दिलचस्पी नहीं ले रहा। मैं कोई जवाब ना देता और दिल में चचा सादी के अशआर पढ़ने लगता, [...]

सदक़े उसके

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मुजरा ख़त्म हुआ, तमाशाई रुख़्सत हो गए तो उस्तादी जी ने कहा,
“सब कुछ लुटा पिटा कर यहां आए थे लेकिन अल्लाह मियां ने चंद दिनों में ही वारे न्यारे कर दिए।”


पेश-बंदी

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पहली वारदात नाके के होटल के पास हुई। फ़ौरन ही वहां एक सिपाही का पहरा लगा दिया गया।
दूसरी वारदात दूसरे ही रोज़ शाम को स्टोर के सामने हुई। सिपाही को पहली जगह से हटा कर दूसरी वारदात के मक़ाम पर मुतअय्यन कर दिया गया।

तीसरा केस रात के बारह बजे लांड्री के पास हुआ। जब इन्सपेक्टर ने सिपाही को इस नई जगह पहरा देने का हुक्म दिया तो उसने कुछ ग़ौर करने के बाद कहा,
“मुझे वहां खड़ा कीजिए जहां नई वारदात होने वाली है।” [...]

जुवारी

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पुलिस ने ऐसी होशियारी से छापा मारा था कि उनमें से एक भी बच कर नहीं निकल सका था और फिर जाता तो कहाँ, बैठक का एक ही ज़ीना था जिस पर पुलिस के सिपाहियों ने पहले ही क़ब्ज़ा जमा लिया था। रही खिड़की, अगर कोई मनचला जान की परवाना कर के उसमें से कूद भी पड़ता तो अव्वल तो उसके घुटने ही सलामत न रहते और बिल-फ़र्ज़ ज़्यादा चोट न आती तो भी उसे भागने का मौक़ा न मिलता क्योंकि पुलिस के निस्फ़-दर्जन सिपाही नीचे बाज़ार में बैठक को घेरे हुए थे और यूँ वो सब के सब जुवारी, जिनकी तादाद दस थी पकड़ लिए गए थे।
इत्तिफ़ाक़ से उस दिन जो जुवारी इस बैठक में आए थे उनमें दो एक पेशावरों को छोड़ कर बाक़ी सब कभी-कभार के शौक़िया खेलने वाले थे और यूँ भी इज़्ज़तदार और आसूदा हाल थे। एक ठेकादार था, एक सरकारी दफ़्तर का ओह्देदार, एक महाजन का बेटा था, एक लारी ड्राईवर था और एक शख़्स चमड़े का कारोबार करता था।

उनमें दो शख़्स ऐसे भी थे जो बे-गुनाह पकड़ लिए गए थे। उनमें एक तो मनसुख पनवाड़ी था। हर-चंद वो भी कभी खेल भी लिया करता था मगर उस शाम वो क़तअन इस मक़सद से वहाँ नहीं गया। वो दुकान पर एक दोस्त को बिठा कर दस के नोट की रेज़गारी लेने आया था। रेज़गारी ले चुका तो चलते एक खिलाड़ी के पत्तों पर नज़र पड़ गई , पत्ते ग़ैर-मामूली तौर पर अच्छे थे। ये देखने को कि वो खिलाड़ी क्या चाल चलता है ये ज़रा की ज़रा रुका था कि इतने में पुलिस आ गई। बस फिर कहाँ जा सकता था!
दूसरा शख़्स एक उम्र रसीदा वसीक़ा नवीस था जो ठेकादार को ढूँढता ढूँढता इस बैठक में पहुँच गया था। ठेकादार से उस की पुरानी साहिब सलामत थी और वो चाहता था कि ठेकादार उसके बेटे को भी छोटा मोटा ठेके का काम दिला दिया करे। वो कई दिन से ठेकेदार की तलाश में सरगर्दां था और आख़िर मिला भी तो कहाँ, जहाँ न तो ठेकादार को खेल से फ़ुर्सत और न उसे इतने आदमियों के सामने मतलब की बात कहने का यारा। ठेकेदार खेल में मुनहमिक था और वसीक़ा नवीस इस सोच में कि वो कौन सी तर्कीब हो सकती है जिससे ये खेल घड़ी-भर के लिए थम जाए और दूसरे सब लोग उठ कर बाहर चले जाएँ। मगर इस क़िस्म की कोई सूरत उसे नज़र न आती थी। उधर ठेकेदार था कि घंटों से बराबर खेले जा रहा था। आख़िर वसीक़ा नवीस मायूस हो कर चलने की सोच ही रहा था कि इतने में पुलिस आ गई और जुवारीयों के साथ उसे भी धर लिया गया। [...]

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