जुवारी

Shayari By

पुलिस ने ऐसी होशियारी से छापा मारा था कि उनमें से एक भी बच कर नहीं निकल सका था और फिर जाता तो कहाँ, बैठक का एक ही ज़ीना था जिस पर पुलिस के सिपाहियों ने पहले ही क़ब्ज़ा जमा लिया था। रही खिड़की, अगर कोई मनचला जान की परवाना कर के उसमें से कूद भी पड़ता तो अव्वल तो उसके घुटने ही सलामत न रहते और बिल-फ़र्ज़ ज़्यादा चोट न आती तो भी उसे भागने का मौक़ा न मिलता क्योंकि पुलिस के निस्फ़-दर्जन सिपाही नीचे बाज़ार में बैठक को घेरे हुए थे और यूँ वो सब के सब जुवारी, जिनकी तादाद दस थी पकड़ लिए गए थे।
इत्तिफ़ाक़ से उस दिन जो जुवारी इस बैठक में आए थे उनमें दो एक पेशावरों को छोड़ कर बाक़ी सब कभी-कभार के शौक़िया खेलने वाले थे और यूँ भी इज़्ज़तदार और आसूदा हाल थे। एक ठेकादार था, एक सरकारी दफ़्तर का ओह्देदार, एक महाजन का बेटा था, एक लारी ड्राईवर था और एक शख़्स चमड़े का कारोबार करता था।

उनमें दो शख़्स ऐसे भी थे जो बे-गुनाह पकड़ लिए गए थे। उनमें एक तो मनसुख पनवाड़ी था। हर-चंद वो भी कभी खेल भी लिया करता था मगर उस शाम वो क़तअन इस मक़सद से वहाँ नहीं गया। वो दुकान पर एक दोस्त को बिठा कर दस के नोट की रेज़गारी लेने आया था। रेज़गारी ले चुका तो चलते एक खिलाड़ी के पत्तों पर नज़र पड़ गई , पत्ते ग़ैर-मामूली तौर पर अच्छे थे। ये देखने को कि वो खिलाड़ी क्या चाल चलता है ये ज़रा की ज़रा रुका था कि इतने में पुलिस आ गई। बस फिर कहाँ जा सकता था!
दूसरा शख़्स एक उम्र रसीदा वसीक़ा नवीस था जो ठेकादार को ढूँढता ढूँढता इस बैठक में पहुँच गया था। ठेकादार से उस की पुरानी साहिब सलामत थी और वो चाहता था कि ठेकादार उसके बेटे को भी छोटा मोटा ठेके का काम दिला दिया करे। वो कई दिन से ठेकेदार की तलाश में सरगर्दां था और आख़िर मिला भी तो कहाँ, जहाँ न तो ठेकादार को खेल से फ़ुर्सत और न उसे इतने आदमियों के सामने मतलब की बात कहने का यारा। ठेकेदार खेल में मुनहमिक था और वसीक़ा नवीस इस सोच में कि वो कौन सी तर्कीब हो सकती है जिससे ये खेल घड़ी-भर के लिए थम जाए और दूसरे सब लोग उठ कर बाहर चले जाएँ। मगर इस क़िस्म की कोई सूरत उसे नज़र न आती थी। उधर ठेकेदार था कि घंटों से बराबर खेले जा रहा था। आख़िर वसीक़ा नवीस मायूस हो कर चलने की सोच ही रहा था कि इतने में पुलिस आ गई और जुवारीयों के साथ उसे भी धर लिया गया। [...]

मीरास

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जब टीपू सुलतान का घोड़ा टी टी नगर से गुज़रा और बाणगंगा के पुल के क़रीब पहुंचा तो एक जलेबी वाले को देखकर घोड़ा मचल गया। थके-मारे घोड़े ने बहुत दिनों से जलेबियों की शक्ल नहीं देखी थी। वो बिदका और दोलतियाँ उछालने लगा। टीपू अपने घोड़े को बहुत चाहता था। पस उसने जलेबी वाले को आवाज़ दी और आधा किलो जलेबियां उसी वक़्त ख़रीद लीं। जलेबी वाले ने एक अख़बार में तौल कर जलेबियां दीं, टीपू उतरा और अपने घोड़े को ताज़ी ताज़ी जलेबियां खिलाने लगा। जलेबियां ख़त्म हुईं तो टीपू की नज़र अख़बार के टुकड़े में एक ख़बर पर पड़ी। टीपू को ख़बर की सुर्ख़ी ने अपनी तरफ़ खींच लिया। वो सुर्ख़ी कुछ इस तरह थी
विलायत से शिवा जी की तलवार भवानी की वापसी का मुतालिबा.

टीपू ने शिवा जी के चर्चे मिडल स्कूल में सुन रखे थे। उसे मालूम था कि शिवा जी बेजिगर इन्सान था और उसके तोपखाने में मुसलमान तोपचियों को बड़े अच्छे अच्छे ओह्दे मिले हुए थे जिन्होंने बहुत सी जंगों में शिवा जी के साथ मैदान-ए-जंग में शुजाअत का सबूत दिया था और मग़्लूं के दाँत खट्टे कर दिए थे लेकिन जहां तक उसके इल्म में था शिवा जी की तलवार एक अच्छी तलवार ज़रूर थी। लेकिन उसमें ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी जिसके खो जाने पर अफ़सोस किया जाये। फिर ये कि शिवा जी एक सरदार था उसके क़ब्ज़े में न जाने कितनी तलवारें रही होंगी तो फिर ये भवानी कौन सी तलवार थी जिसकी वापसी के लिए...
यकायक टीपू सुलतान के ख़्यालात का सिलसिला टूट गया। एक दम से उसे एक फ़िल्म याद आगई जो बनारस के घाटों पर पूजापाट कराने वाले कुछ पंडों पर बनाई गई थी और उसमें एक मोटा सा तगड़ा सा आदमी हाथ में एक भयानक सी तलवार लिए एक मुसाफ़िर की गर्दन मारने से पहले 'जय भवानी' का डरावना नारा लगाता है। क़रीब था कि टीपू सिनेमा हाल से उठ आता कि उसके दोस्त ने उसको समझाया कि ये हक़ीक़त नहीं फ़िल्म है। [...]

तीन मोटी औरतें

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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी के दिन मज़े से कट रहे थे।
मिसेज़ सतलफ़ के ख़द्द-ओ-ख़ाल मोटापे की वजह से भद्दे पड़ गए थे। उसकी बाहें कंधे और कूल्हे भारी मालूम होते थे। लेकिन इस उधेड़ उम्र में भी वो बन-संवर कर रहती थी। वो नीला लिबास सिर्फ़ इसलिए पहनती थी कि उसकी आँखों की चमक नुमायाँ हो और बनावटी तरीक़ों से उसने अपने बालों की ख़ूबसूरती भी क़ायम रखी थीं।

उसे मिसेज़ रिचमेन और मिस बेकन इसलिए पसंद थीं कि वो दोनों उसकी निस्बत मोटी थीं और चूँकि वो उम्र में भी उनसे क़दरे छोटी थी इसलिए वो उसे अपनी बच्ची की तरह ख़याल करतीं। ये कोई नापसंदीदा बात न थी। वो दोनों ख़ुश तबीयत थीं। अक्सर तफ़रीहन उसके होने वाले मंगेतर का ज़िक्र छेड़ देती।
वो ख़ुद तो इस इश्क़-ओ-मुहब्बत की उलझन से कोसों दूर थीं लेकिन इस मुआमले में उन्हें मिसेज़ सतलफ़ से पूरी हमदर्दी थी। उन्हें यक़ीन था कि वो दिनों ही में कोई नया गुल खिलाने वाली है। [...]

गिलगित ख़ान

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शहबाज़ ख़ान ने एक दिन अपने मुलाज़िम जहांगीर को जो उसके होटल में अंदर-बाहर का काम करता था उसकी सुस्त-रवी से तंग आकर बरतरफ़ कर दिया। असल में वो सुस्त-रौ नहीं था। इस क़दर तेज़ था कि उसकी हर हरकत शहबाज़ ख़ान को ग़ैर मुतहर्रिक मालूम होती थी।
शहबाज़ ख़ान ने उसको महीने की तनख़्वाह दी। जहांगीर ने उसको सलाम किया और टिकट कटा कर सीधा बलोचिस्तान चला गया जहां कोयले की कांनें निकल रही थीं। उसके और कई दोस्त वहीं चले गए थे। लेकिन उसने गिलगित अपने भाई हमज़ा ख़ान को ख़त लिखा कि वो शहबाज़ ख़ान के यहां मुलाज़मत कर ले क्योंकि उसे अपना ये आक़ा पसंद था।

एक दिन हमज़ा ख़ान, शहबाज़ ख़ान के होटल में आया और एक कार्ड दिखा कर उसने कहा, खू अम मुलाज़मत चाहता है... अमारे भाई ने लिखा है, तुम अच्छा और नेक आदमी है... खू अम भी अच्छा और नेक है... तुम कितना पैसा देगा?”
शहबाज़ ख़ान ने हमज़ा ख़ान की तरफ़ देखा। वो जहांगीर का भाई किसी लिहाज़ से भी दिखाई नहीं देता था। नाटा सा क़द, नाक चौड़ी चपटी। निहायत बदशक्ल। शहबाज़ ख़ान ने उसे एक नज़र देख कर और जहांगीर का ख़त पढ़ कर सोचा कि इसको निकाल बाहर करे। मगर आदमी नेक था, उसने किसी साइल को ख़ाली नहीं जाने दिया था। [...]

बचनी

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भंगिनों की बातें हो रही थीं। ख़ासतौर पर उनकी जो बटवारे से पहले अमृतसर में रहती थीं। मजीद का ये ईमान था कि अमृतसर की भंगिनों जैसी करारी छोकरियां और कहीं नहीं पाई जातीं। ख़ुदा मालूम तक़सीम के बाद वो कहाँ तितर-बितर हो गई थीं।
रशीद उनके मुक़ाबले में गुजरियों की तारीफ़ करता था। उसने मजीद से कहा, “तुम ठीक कहते हो कि अमृतसरी भंगिनें अपनी जवानी के ज़माने में बड़ी पुरकशिश होती हैं, लेकिन उनकी ये जवानी ख़त्रानियों की तरह ज़्यादा देर तक क़ाएम नहीं रहती... बस एक दिन जवान होती हैं और देखते ही देखते अधेड़ हो जाती हैं... उनकी जवानी मालूम नहीं कौन सा चोर चुरा के ले जाता है।”

“ख़ुदा की क़सम... हमारे हाँ एक भंगिन कोठा कमाने आती थी, इतनी कड़ियल जवानी थी कि मैं अपनी कमज़ोर जवानी को महसूस कर के उससे कभी बात न कर सका...” ईसाई मिशनरियों ने उसे अपने मज़हब में दाख़िल कर लिया था।
“नाम उसका फ़ातिमा था। पहले घर वाले उसे फातो कहते थे... मगर जब वो ईसाई हुई तो उसे मिस फातो के नाम से पुकारा जाने लगा। सुबह को वो ब्रेकफास्ट करती थी, दोपहर को लंच और शाम को डिनर... लेकिन चंद महीनों के बाद मैंने उसे देखा कि उसकी सारी कड़ियल जवानी जैसे पिघल गई है... उसकी छातियां जो बड़ी तंद-ख़ू थीं और इस तरह ऊपर उठती रहती थीं जैसे अभी अपना सारा जवान बदन आप पर दाग़ देंगी, इस क़दर नीचे ढलक गई थीं कि उनका नाम-ओ-निशान भी नहीं मिलता था।” [...]

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