अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

नजात

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(1)
दुखी चमार दरवाज़े पर झाड़ू लगा रहा था, और उसकी बीवी झरिया घर को लीप रही थी। दोनों अपने अपने काम से फ़राग़त पा चुके, तो चमारिन ने कहा,

“तो जा कर पण्डित बाबा से कह आओ। ऐसा न हो कहीं चले जाएँ।”
दुखी, “हाँ जाता हूँ, लेकिन ये तो सोच कि बैठेंगे किस चीज़ पर?” [...]

कफ़न

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(1)
झोंपड़े के दरवाज़े पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने ख़ामोश बैठे हुए थे और अन्दर बेटे की नौजवान बीवी बुधिया दर्द-ए-ज़ेह से पछाड़ें खा रही थी और रह-रह कर उसके मुँह से ऐसी दिल-ख़राश सदा निकलती थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे।

जाड़ों की रात थी, फ़ज़ा सन्नाटे में ग़र्क़, सारा गाँव तारीकी में जज़्ब हो गया था।
घीसू ने कहा, “मालूम होता है बचेगी नहीं। सारा दिन तड़पते हो गया, जा देख तो आ।” [...]

बहरूपिया

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ये उस ज़माने की बात है जब मेरी उम्र बस कोई तेरह-चौदह बरस की थी। हम जिस महल्ले में रहते थे वो शहर के एक बा-रौनक बाज़ार के पिछवाड़े वाक़े था। उस जगह ज़्यादा-तर दरमयाने तबक़े के लोग या ग़रीब-ग़ुरबा ही आबाद थे। अलबत्ता एक पुरानी हवेली वहाँ ऐसी थी जिसमें अगले वक़्तों की निशानी कोई साहब ज़ादा साहब रहा करते थे। उनके ठाठ तो कुछ ऐसे अमीराना न थे मगर अपने नाम के साथ “रईस-ए-आज़म” लिखना शायद वो अपना फ़र्ज़-ए-मनसबी समझते थे। अधेड़ उम्र, भारी भरकम आदमी थे। घर से बाहर ज़रा कम ही क़दम निकालते। हाँ हर-रोज़ तीसरे पहर हवेली के अहाते में अपने अहबाब के झुरमुट में बैठ कर गप्पें उड़ाना और ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे लगाना उन का दिल पसंद मशग़ला था।
उनके नाम की वजह से अक्सर हाजत मंद, यतीम ख़ानों के एजेंट और तरह-तरह के चंदा उगाहने वाले उनके दरवाज़े पर सवाली बन कर आया करते। इलावा अज़ीं जादू के प्रोफ़ेसर, रुमाल नजूमी, नक़्क़ाल, भाट और इसी क़िस्म के दूसरे लोग भी अपना हुनर दिखाने और इन्आम-ओ-इकराम पाने की तवक़्क़ो में आए दिन उनकी हवेली में हाज़िरी दिया करते।

जिस ज़माने का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ एक बहरूपिया भी तरह-तरह के रूप भर कर उनकी हवेली में आया करता। कभी ख़ाली कोट पतलून पहने, चमड़े का थैला गले में डाले, छोटे-छोटे शीशों और नरम कमानियों वाली ऐनक आँखों पर लगाए चिट्ठी रसाँ बना हर एक से बैरंग ख़त के दाम वसूल कर रहा है। कभी जटाधारी साधू है। लँगोट कसा हुआ जिस्म पर भबूत रमाई हुई। हाथ में लंबा सा चिमटा, सुर्ख़-सुर्ख़ आँखें निकाल-निकाल “बम महादेव” का नारा लगा रहा है। कभी भंगन के रूप में है जो सुर्ख़ लहंगा पहने कमर पर टोकरा हाथ में झाड़ू लिए झूट-मूट पड़ोसनों से लड़ती भिड़ती आप ही आप बकती-झकती चली आ रही है।
मेरे हम-सबक़ों में एक लड़का था मदन। उम्र में तो वो मुझसे एक-आध बरस छोटा ही था मगर क़द मुझसे निकलता हुआ था। ख़ुश शक्ल, भोला-भाला। मगर साथ ही बच्चों की तरह बला का ज़िद्दी। हम दोनों ग़रीब माँ-बाप के बेटे थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। स्कूल के बाद कभी वो मेरे महल्ले में खेलने आ जाता। कभी में उसके हाँ चला जाता। [...]

अंगूठी की मुसीबत

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(1)
मैंने शाहिदा से कहा, तो मैं जा के अब कुंजियाँ ले आऊँ।

शाहिदा ने कहा, आख़िर तू क्यों अपनी शादी के लिए इतनी तड़प रही है? अच्छा जा।
मैं हँसती हुई चली गई। कमरे से बाहर निकली। दोपहर का वक़्त था और सन्नाटा छाया हुआ था। अम्माँ जान अपने कमरे में सो रही थीं और एक ख़ादिमा पंखा झल रही थी। मैं चुपके से बराबर वाले कमरे में पहुंची और मसहरी के तकिया के नीचे से कुंजी का गुच्छा लिया। सीधी कमरे पर वापस आई और शाहिदा से कहा, जल्दी चलो। [...]

शातिर की बीवी

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(1)
उम्दा किस्म का सियाह-रंग का चमकदार जूता पहन कर घर से बाहर निकलने का असल लुतफ़ तो जनाब जब है जब मुँह में पान भी हो, तंबाकू के मज़े लेते हुए जूते पर नज़र डालते हुए बेद हिलाते जा रहे हैं। यही सोच कर में जल्दी-जल्दी चलते घर से दौड़ा। जल्दी में पान भी ख़ुद बनाया। अब देखता हूँ तो छालीया नदारद। मैंने ख़ानम को आवाज़ दी कि छालीया लाना और उन्होंने उस्तानी जी को पुकारा। उस्तानी जी वापिस मुझे पुकारा कि वो सामने ताक़ में रखी है। मैं दौड़ा हुआ पहुंचा। एक रकाबी में कटी और बे कटी यानी साबित छालीया रखी हुई थी। सरौता भी रखा हुआ था और सुबे से ताज्जुब की बात ये कि शतरंज का एक रख़स भी छालीया के साथ कटा रखा था। इस के तीन टुकड़े थे। एक तो आधा और दो पाओ पाओ। साफ़ ज़ाहिर है कि छालीया के धोके में कतरा गया है, मगर यहां किधर से आया। ग़ुस्सा और रंज तो गुमशुदगी का वैसे ही था। अब रुख की हालत-ए-ज़ार जो देखी तो मेरा वही हाल हुआ जो अली-बाबा का क़ासिम की लाश को देखकर हुआ था। ख़ानम के सामने जा कर रकाबी जूं की तूं रख दी। ख़ानम ने भवें चढ़ा कर देखा और यक-दम उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर ताज्जु-बख़ेज़ मुस्कुराहट सी आकर रख गई और उन्होंने मस्नूई ताज्जुब से उस्तानी जी की तरफ़ रकाबी करते हुए देखा। उस्तानी जी एक दम से भवें चढ़ा कर दाँतों तले ज़बान दाब के आँखें फाड़ दें, फिर संजीदा हो कर बोलीं,

जब ही तो मैं कहूं या अल्लाह इतनी मज़बूत और सख़्त छालीया कहाँ से आ गई। कल रात अंधेरे में कट गया। जब से रकाबी जूं की तूं वहीं रखी है।
अजी ये यहां आया कैसे ? मैंने तेज़ हो कर कहा। [...]

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