ये उस ज़माने की बात है जब मेरी उम्र बस कोई तेरह-चौदह बरस की थी। हम जिस महल्ले में रहते थे वो शहर के एक बा-रौनक बाज़ार के पिछवाड़े वाक़े था। उस जगह ज़्यादा-तर दरमयाने तबक़े के लोग या ग़रीब-ग़ुरबा ही आबाद थे। अलबत्ता एक पुरानी हवेली वहाँ ऐसी थी जिसमें अगले वक़्तों की निशानी कोई साहब ज़ादा साहब रहा करते थे। उनके ठाठ तो कुछ ऐसे अमीराना न थे मगर अपने नाम के साथ “रईस-ए-आज़म” लिखना शायद वो अपना फ़र्ज़-ए-मनसबी समझते थे। अधेड़ उम्र, भारी भरकम आदमी थे। घर से बाहर ज़रा कम ही क़दम निकालते। हाँ हर-रोज़ तीसरे पहर हवेली के अहाते में अपने अहबाब के झुरमुट में बैठ कर गप्पें उड़ाना और ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे लगाना उन का दिल पसंद मशग़ला था। उनके नाम की वजह से अक्सर हाजत मंद, यतीम ख़ानों के एजेंट और तरह-तरह के चंदा उगाहने वाले उनके दरवाज़े पर सवाली बन कर आया करते। इलावा अज़ीं जादू के प्रोफ़ेसर, रुमाल नजूमी, नक़्क़ाल, भाट और इसी क़िस्म के दूसरे लोग भी अपना हुनर दिखाने और इन्आम-ओ-इकराम पाने की तवक़्क़ो में आए दिन उनकी हवेली में हाज़िरी दिया करते। जिस ज़माने का मैं ज़िक्र कर रहा हूँ एक बहरूपिया भी तरह-तरह के रूप भर कर उनकी हवेली में आया करता। कभी ख़ाली कोट पतलून पहने, चमड़े का थैला गले में डाले, छोटे-छोटे शीशों और नरम कमानियों वाली ऐनक आँखों पर लगाए चिट्ठी रसाँ बना हर एक से बैरंग ख़त के दाम वसूल कर रहा है। कभी जटाधारी साधू है। लँगोट कसा हुआ जिस्म पर भबूत रमाई हुई। हाथ में लंबा सा चिमटा, सुर्ख़-सुर्ख़ आँखें निकाल-निकाल “बम महादेव” का नारा लगा रहा है। कभी भंगन के रूप में है जो सुर्ख़ लहंगा पहने कमर पर टोकरा हाथ में झाड़ू लिए झूट-मूट पड़ोसनों से लड़ती भिड़ती आप ही आप बकती-झकती चली आ रही है। मेरे हम-सबक़ों में एक लड़का था मदन। उम्र में तो वो मुझसे एक-आध बरस छोटा ही था मगर क़द मुझसे निकलता हुआ था। ख़ुश शक्ल, भोला-भाला। मगर साथ ही बच्चों की तरह बला का ज़िद्दी। हम दोनों ग़रीब माँ-बाप के बेटे थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। स्कूल के बाद कभी वो मेरे महल्ले में खेलने आ जाता। कभी में उसके हाँ चला जाता।
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