अंगूठी की मुसीबत

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(1)
मैंने शाहिदा से कहा, तो मैं जा के अब कुंजियाँ ले आऊँ।

शाहिदा ने कहा, आख़िर तू क्यों अपनी शादी के लिए इतनी तड़प रही है? अच्छा जा।
मैं हँसती हुई चली गई। कमरे से बाहर निकली। दोपहर का वक़्त था और सन्नाटा छाया हुआ था। अम्माँ जान अपने कमरे में सो रही थीं और एक ख़ादिमा पंखा झल रही थी। मैं चुपके से बराबर वाले कमरे में पहुंची और मसहरी के तकिया के नीचे से कुंजी का गुच्छा लिया। सीधी कमरे पर वापस आई और शाहिदा से कहा, जल्दी चलो। [...]

शातिर की बीवी

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(1)
उम्दा किस्म का सियाह-रंग का चमकदार जूता पहन कर घर से बाहर निकलने का असल लुतफ़ तो जनाब जब है जब मुँह में पान भी हो, तंबाकू के मज़े लेते हुए जूते पर नज़र डालते हुए बेद हिलाते जा रहे हैं। यही सोच कर में जल्दी-जल्दी चलते घर से दौड़ा। जल्दी में पान भी ख़ुद बनाया। अब देखता हूँ तो छालीया नदारद। मैंने ख़ानम को आवाज़ दी कि छालीया लाना और उन्होंने उस्तानी जी को पुकारा। उस्तानी जी वापिस मुझे पुकारा कि वो सामने ताक़ में रखी है। मैं दौड़ा हुआ पहुंचा। एक रकाबी में कटी और बे कटी यानी साबित छालीया रखी हुई थी। सरौता भी रखा हुआ था और सुबे से ताज्जुब की बात ये कि शतरंज का एक रख़स भी छालीया के साथ कटा रखा था। इस के तीन टुकड़े थे। एक तो आधा और दो पाओ पाओ। साफ़ ज़ाहिर है कि छालीया के धोके में कतरा गया है, मगर यहां किधर से आया। ग़ुस्सा और रंज तो गुमशुदगी का वैसे ही था। अब रुख की हालत-ए-ज़ार जो देखी तो मेरा वही हाल हुआ जो अली-बाबा का क़ासिम की लाश को देखकर हुआ था। ख़ानम के सामने जा कर रकाबी जूं की तूं रख दी। ख़ानम ने भवें चढ़ा कर देखा और यक-दम उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर ताज्जु-बख़ेज़ मुस्कुराहट सी आकर रख गई और उन्होंने मस्नूई ताज्जुब से उस्तानी जी की तरफ़ रकाबी करते हुए देखा। उस्तानी जी एक दम से भवें चढ़ा कर दाँतों तले ज़बान दाब के आँखें फाड़ दें, फिर संजीदा हो कर बोलीं,

जब ही तो मैं कहूं या अल्लाह इतनी मज़बूत और सख़्त छालीया कहाँ से आ गई। कल रात अंधेरे में कट गया। जब से रकाबी जूं की तूं वहीं रखी है।
अजी ये यहां आया कैसे ? मैंने तेज़ हो कर कहा। [...]

इक्का

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दस बजे हैं। लेडी हिम्मत क़दर ने अपनी मोटी सी नाज़ुक कलाई पर नज़र डालते हुए जमाही ली। नवाब हिम्मत क़दर ने अपनी ख़तरनाक मूंछों से दाँत चमका कर कहा। ग्यारह, साढे़ गया बजे तक तो हम ज़रूर फ़ो... होनच... बिग...
मोटर को एक झटका लगा और तेवरी पर बल डाल कर नवाब साहिब ने एक छोकरे के साथ मोड़ का पाए गढ़े से निकाला और अजीब लहजा में कहा। लाहौल वला क़ोৃ कच्ची सड़क...

गर्द-ओ-ग़ुबार का एक तूफान-ए-अज़ीम पाए के नीचे से उठा कि जो हमने अपने मोटर के पीछे छोड़ा। कितने मेल और होंगे ? लेडी हिम्मत क़दर ने मुस्कुराते हुए पूछा।
मैंने कुछ संजीदगी से जवाब दिया। अभी अट्ठाईस मेल और हैं। नवाब साहिब ने मोटर की रफ़्तार और तेज़ कर दी। [...]

आनंदी

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बलदिया का इजलास ज़ोरों पर था। हाल खचाखच भरा हुआ था और खिलाफ़-ए-मा’मूल एक मेम्बर भी ग़ैर-हाज़िर न था। बलदिया के ज़ेर-ए-बहस मस्अला ये था कि ज़नान-बाज़ारी को शह्​र बदर कर दिया जाए क्योंकि उनका वुजूद इन्सानियत, शराफ़त और तहज़ीब के दामन पर बदनुमा दाग़ है।
बलदिया के एक भारी भरकम रुक्न जो मुल्क-ओ-क़ौम के सच्चे ख़ैर-ख़्वाह और दर्द-मंद समझे जाते थे निहायत फ़साहत से तक़रीर कर रहे थे।

“और फिर हज़रात आप ये भी ख़याल फ़रमाइए कि उनका क़याम शह्​र के एक ऐसे हिस्से में है जो न सिर्फ़ शह्​र के बीचों बीच आम गुज़र-गाह है बल्कि शह्​र का सबसे बड़ा तिजारती मर्कज़ भी है चुनाँचे हर शरीफ़ आदमी को चार-ओ-ना-चार इस बाज़ार से गुज़रना पड़ता है। अलावा अज़ीं शुरफ़ा की पाक दामन बहू बेटियाँ इस बाज़ार की तिजारती अहमियत की वज्ह से यहाँ आने और ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करने पर मजबूर हैं। साहिबान! ये शरीफ़ ज़ादियाँ इन आबरू बाख़्ता, नीम उरियाँ बेस्वाओं के बनाव सिंगार को देखती हैं तो क़ुदरती तौर पर उनके दिल में भी आराइश-ओ-दिलरुबाई की नई-नई उमंगें और वलवले पैदा होते हैं और वो अपने ग़रीब शौहरों से तरह-तरह के गाज़ों, लेवेनडरों, ज़र्क़-बर्क़ साड़ियों और क़ीमती ज़ेवरों की फरमाइशें करने लगती हैं। नतीजा ये होता है कि उनका पुर-मसर्रत घर, उनका राहत-कदा हमेशा के लिए जहन्नम का नमूना बन जाता है।”
“और साहिबान फिर आप ये भी तो ख़याल फ़रमाइए कि हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम जो दर्सगाहों में ता’लीम पा रहे हैं और उनकी आइन्दा तरक़्क़ियों से क़ौम की उम्मीदें वाबस्ता हैं और क़यास कहता है कि एक न एक दिन क़ौम की कश्ती को भंवर से निकालने का सहरा उन्ही के सर बंधेगा, उन्हें भी सुब्ह शाम इसी बाज़ार से होकर आना-जाना पड़ता है। ये क़हबाएँ हर वक़्त बारा उभरन सोलह सिंगार किए राह-रौ पर बे-हिजाबाना निगाह-ओ-मिज़ह के तीर-ओ-सिनाँ बरसाती और उसे दावत-ए-हुस्न देती हैं। क्या इन्हें देख कर हमारे भोले-भाले ना-तजुर्बेकार जवानी के नशे में मह्व, सूद-ओ-ज़ियाँ से बे-परवाह नौ-निहालान-ए-क़ौम अपने जज़्बात-ओ-ख़यालात और अपनी आला सीरत को मा’सियत के मस्मूम असरात से महफ़ूज़ रख सकते हैं? साहिबान! क्या उनका हुस्न ज़ाहिद फ़रेब हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम को जादा-ए-मुस्तक़ीम से भटका कर, उनके दिल में गुनाह की पुर-असरार लज़्ज़तों की तिश्नगी पैदा करके एक बेकली, एक इज़्तिराब, एक हैजान बरपा न कर देता होगा।” [...]

खाद

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उसकी ख़ुदकुशी पर उसके एक दोस्त ने कहा,
“बहुत ही बेवक़ूफ़ था जी। मैंने लाख समझाया कि देखो अगर तुम्हारे केस काट दिए हैं और तुम्हारी दाढ़ी मूंड दी है तो इसका ये मतलब नहीं कि तुम्हारा धर्म ख़त्म होगया है... रोज़ दही इस्तिमाल करो। वाहे गुरु जी ने चाहा तो एक ही बरस में तुम फिर वैसे के वैसे हो जाओगे।”


क़ुर्बानी का जानवर

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ज़फ़र भौंचक्का बैठा था। आयशा ने ​िसवय्यों का प्याला हाथ में देते हुए पूछा, ‘‘फिर क्या कहा मैडम ने?’’
‘‘कहा कि लड़का 14-13 साल का हो। किसी अच्छे घर का हो, घरेलू काम-काज का थोड़ा-बहुत तजुर्बा हो। आँख न मिलाता हो। साफ़-सुथरा रहता हो, तनख़्वाह ज़ियादा न माँगे। नाग़ा न करे। महीने पीछे पगार और रोज़ाना तीन वक़्त का खाना भी तो मिलेगा।’’

‘‘फिर?’’
‘‘फिर क्या?’’ [...]

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