जो बुझ गया उसी मंज़र पे रख के आया हूँ ...
इसबात में भी है मिरा इंकार हर तरफ़ ...
इस सफ़र में तो वो बीती है कि कुछ भी मत पूछ ...
हुस्न पर बढ़ के जान देने लगा ...
हुजूम-ए-शहर में आए बहुत थे ...
हिज्र-ओ-विसाल कितना आसान कर दिया है ...
हवा से रिश्ता मिरा उस्तुवार होते हुए ...
हर तरफ़ घनघोर तारीकी थी राह-जिस्म में ...
हर एक पहलू-ए-ख़ुश-मंज़री बिखरता रहा ...
हमें तो नश्शा-ए-हिज्राँ निढाल छोड़ गया ...
घर की जानिब वो चल रहा होगा ...
गाहे-गाहे मैं तुझे याद भी कर सकता हूँ ...
दिन के हंगामों में दुनिया थी तमाशाई मिरी ...
बिछड़ के तुझ से जो हम जान से जुदा हुए हैं ...
भरा हुआ हूँ मैं पूरे वुजूद से अपने ...
बड़ी फ़ुर्सतें हैं कहीं गुज़र नहीं कर रहा ...
बदन था सोया हुआ रूह जागती हुई थी ...
बदन के सारे जज़ीरे शुमार करते हुए ...
बदन बनाते हैं थोड़ी सी जाँ बनाते हैं ...
बड़ा मज़ा हो जो ये मो'जिज़ा भी हो जाए ...