लालच कुछ और दो कि फ़क़त दीद क्या करें ...
लाख कोई चीख़े चिल्लाए शोर अन्दर कब आता है ...
क्यों उधर ही निकल पड़ा जाए ...
क्यों भला आधा-अधूरा 'इश्क़ कीजे ...
कुछ को दुकान कुछ को ख़रीदार कर चुके ...
कुछ हमें छूट भी मिल जाए ख़ुराफ़ात की अब ...
किस ने हमारे शह्र पे मारी है रौशनी ...
ख़ुदा मु'आफ़ करे ज़िंदगी बनाते हैं ...
ख़ाली हुआ ही था कि खनकने लगा बदन ...
कौन उस को चाहता मेरी तरह ...
कहीं से ढूँढ कर तो लाओ मुझ को ...
कभी सोचा है कुछ अच्छा बुरा क्या ...
जुज़ ख़ुदा और कोई हामी-ओ-नासिर मिल जाए ...
जुनूँ वाले बिल-आख़िर शाहकारों से निकल आए ...
जो तेरे साथ ज़रा देर तक रुका होता ...
जिस्म-ए-मस्लूब का यक-लख़्त नया हो जाना ...
जिस के आने से हुआ है दफ़'अतन पानी शराब ...
झलक भी मिल न पाई ज़िंदगी की ...
जल्सा नहीं जुलूस नहीं शा'इरी नहीं ...
जब फेर कर निगाह हर अपना पराया जाए ...