पहले तो रस्म-ओ-राह बढ़ाता चला गया ...
मेरी शोहरत न तबी'अत न ठिकाना अच्छा ...
खुलता है किसी पर तो किसी पर नहीं खुलता ...
कैसे आँखों में कोई ख़्वाब सुनहरा पाले ...
काम हिर्स-ओ-हवस का थोड़ी है ...
जैसे ख़ामोश-बयानी को बयाँ होने में ...
हमवार खींच कर कभी दुश्वार खींच कर ...
फ़क़त जस्त भरने तलक मसअला है ...
एक मुफ़्लिस का गुज़र बाज़ार से होता हुआ ...
ऐ ज़िंदगी बस और नहीं बस सकत नहीं ...
अब मैं ख़ुद को याद आना छोड़ दूँ ...
आती न अगर काम मिरे दर-ब-दरी भी ...
हम-चू सब्ज़ा बार-हा रोईदा-एम ...
मक़तल-ए-शौक़ के आदाब निराले हैं बहुत
सितारों के पयाम आए बहारों के सलाम आए ...
सबा ने कान में आ कर कहा मिले ही नहीं ...
जब जब उस को यार मनाना पड़ता है ...
जब 'अक्स मिरा शोर मचाने में लग गया ...
दुख में लिपटा हुआ सताए बदन ...
शैख़-ओ-वाइज़ को ख़ुदारा हम-नशीं मत कीजिए ...