भीड़ नहीं ये आँखें हैं ...
ख़ुदा ...
सच्चे 'इश्क़ की लाश पे रोना धोना भी कम होता है ...
चने मेरे सोयम के ...
अना का कौन सा चेहरा था वो ...
अगर हम वापसी भी साथ करते ...
मंज़िलों पर बोझ हो जाती हैं सब ...
मैं बहुत दूर था ...
नमाज़ ख़त्म हो गई ...
ज़रा सी बात पर घबराने वाले ...
ये पत्थर तो इक दिन पिघल जाएगा ...
ये कह के और मिरा सब्र आज़माया गया ...
यार का किरदार आईना निभा सकता नहीं ...
यक़ीं ख़ुद पे इतना बड़ी बात है ...
यहाँ दिमाग़ कहाँ मैं चलाने आता हूँ ...
वो निगाहें जो हज़ारों की सुना करती थीं ...
वो दिन भी कैसा सितम मुझ पे ढा के जाएगा ...
वो भी माहिर था बहुत बात को उलझाने में ...
वार पर वार कर रहा हूँ मैं ...
उसे भी कोई मश्ग़ला चाहिए था ...