जो रंजिशें थीं उन्हें बरक़रार रहने दिया ...
जो लड़खड़ाएँ तो ख़ुद को सहारा करते हैं ...
जहाँ है छत मिरी दर भी वहीं निकालता हूँ ...
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया ...
हवा-ए-शाम से दीवार में शिगाफ़ आया ...
हाथ पकड़ कर अन्दर तक ले जाते हैं ...
इक ज़रा सा बिगाड़ होने से ...
दिनों को जोड़ो महीनों को साल करते रहो ...
चाँद भी गुम है सितारा भी नहीं है कोई ...
बोझ कोई सर पर लेते हैं ...
बाज़ार में इक हम ही ज़रूरत के नहीं थे ...
बस्ती में एक गोशा-ए-वीरान ही तो था ...
बारहा ख़ुद को बदलने का इरादा कर के ...
बर्फ़ पिघले कि ज़रा रास्ता होने लग जाए ...
अभी मरा था अभी मर के जी उठा हूँ मैं ...
आग दिल को लगे आँखों को धुआँ ले जाए ...
आ भी जाते तो पलट कर नहीं जाने देता ...
ख़ुशियाँ नहीं तो क्यों कहूँ आज़ार भी नहीं ...
घाव जितने गहरे हों मैं भूल जाता हूँ सभी ...
दायरा मोहब्बत का जिस की ये कहानी है ...