ज़ेर-ए-हुल्क़ूम है सहरा की तपिश का 'आलम ...
यूँ तो मैं हूँ फ़लक उस जहाँ के लिए ...
ये तेरी चाह के गुल किस तरह उतरते हैं ...
ये जो है 'आशिक़ी तबर्रुक है ...
तिरे जाने का दिल को ग़म नहीं है ...
तेरे दीवाने को इस तरह सताया गया है ...
नहर की धारों से निकले और नदी में फँस गए ...
नए तर्ज़ का मिरे साथ आप ने छल किया ...
मसअले हल नहीं हुए मेरे ...
ख़ुद को किस तरह तुम सँभालोगे ...
जिस तरफ़ कोई न आ पाया उधर आया तू ...
जब उस ने छोड़ने की दी थी धमकी बाँहों में ...
जाना है आज आना है कल कुछ तो बोल जा ...
हसरत से क़मर तकता था ख़ुर्शीद-ए-मुबीं था ...
ग़ुस्से में एक शख़्स की महफ़िल गया है दिल ...
हम ए'तिबार-ए-जुनूँ बार बार करते रहे ...
चमकती हुई धूप तेज़ी से निकली ...
असर उस को ज़रा नहीं होता ...
ऐ परिंदो किसी शाम उड़ते हुए ...
ऐ परिंदे तू है अपनी आग में जलता हुआ ...